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अनगार
नाम उपचरितमतिज्ञानानन्धक ज्ञानावरणमा
मत्यादिविभावगुणाश्चित इत्युपचरितकः स चाशुद्धः ।
देहो मदीय इत्यनुपचरितसंज्ञस्त्वसद्भूतः ॥ १०६ ॥ विभाव नाम बहिरंग निमित्तका है। उससे उत्पन्न होनेवाले धोको विभावगुण कहते हैं। ज्ञानके मति श्रुत आदि जो भेद हैं वे सब ऐसे ही हैं। क्योंकि वे अपने प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विशेष की अपेक्षासे उत्पन्न होते हैं। फिर भी उनके विषयमें “ मतिज्ञानादिक जीवके हैं" ऐसा व्यवहार करना इसको अशुद्ध सद्भूत कहते हैं। इसका दूसरा नाम उपचरित भी है।
ऊपर व्यवहार नयका असद्भुत जो भेद गिनाया है उसके भी दो भेद हैं। अनुपचरित और उपचरित । "शरीर मेरा है" इस व्यवहारको अनुपचरित असद्भूत कहते हैं। क्योंक यद्यपि शरीर और आत्मा भिन्न भिन्न है किंतु उनमें परस्पर संश्लेष होरहा है। उसकी अपेक्षासे अभेदकी कल्पना करके ही ऐसा व्वहार किया गया है। इसी प्रकार जिन दो भिन्न पदार्थों में ऐसा सम्बन्ध पाया जाय उनमें ऐसी अवस्थामें इस नयका प्रयोग हुआ करता है।
व्यवहार नयके दूसरे भेद उपचरित असद्भुतका आकार बताते हुए प्रकृत विषयका-नयोंके प्रकरणका उपसंहार करते हैं :
• देशो मदीय इत्युपचरितसमाह्वः स एव चेत्युक्तम् ।
नयचक्रमूलभृतं नयषटुं प्रवचनपटिष्टैः ॥ १०७ ॥ “यह देश मेरा है " इस तरहके व्यवहारको उपचरितासद्भुत व्यवहार नय कहते हैं। क्योंकि इन दोनों पदार्थोंमें भेद रहते हुए भी अभेदकी कल्पना की गई है। और उनमें किसी भी प्रकारका संश्लेष भी नहीं पाया
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