SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 664
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ অনা| दूसरे लोग यदि अपनी प्रशंसा करें अथवा धार्मिक एवं माङ्गलिक कार्योंके समय अपनेको बुला कर अथवा अग्रस्थान देकर अपना सम्मान करें तो उससे जो साधु प्रसन्न नहीं होता और इसके विरुद्ध यदि कोई अपनी निन्दा करे अथवा श्रेष्ठ कार्योंके समय अपनेको न बुलाकर या अग्रस्थान न देकर अपना अपमान करे वो उससे कष्ट नहीं होता उस साधुको सत्कारपुरस्कार परीषदका विजयी समझना चाहिये । भावार्थ-चिरकालसे ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाला महातपस्वी स्वसमय और परसमय का ज्ञाता हितोप. देशका निरूपण करनेमें कुशल और अनेक वार परवादियोंपर विजय प्राप्त करनेवाला होकर भी जो साधु अपने मनमें ऐसा विचार नहीं लाता कि “देखो, कोई भी मुझे प्रमाण नहीं मानता या मेरी भाकै अथवा मुझे ससंभ्रम उच्चास. नका प्रदान नहीं करता। इससे तो मिथ्यादृष्टि ही अच्छे जो कि अपने मूर्ख भी साधर्मीका सर्वज्ञतुल्य सम्मान करके अपने धर्मकी प्रभावना किया करते हैं। व्यन्तरादिकोंके विषयमें भी जो सुना जाता है कि वे प्राचीन समयमें अत्यंत उग्र तपस्या करनेवालोंकी प्रत्यग्र पूजा किया करते थे सो भी बात कुछ मिथ्यासरीखी ही मालुम होती है। अन्यथा आज वे साधी होकर भी हम सरीखोंका अनादर क्यों करते हैं?" इस प्रकारके दुर्भावोंसे जिसका मन अलिप्त रहता है और जो मानापमानमें तुल्यवृत्ति है वही सत्कारपुरस्कार परीषहका विजयी समझा जा सकता है। प्रज्ञा परीषदके विजयका स्वरूप बताते हैंविद्याः समस्ता यदुपज्ञमस्ताः प्रवादिनो भूपसभेषु येन । प्रज्ञोमिजित सोस्तु मदेन विप्रो गरुत्मता यद्वदखाद्यमानः ॥१८॥ जो सम्पूर्ण अपूर्व और प्रकीर्णक विद्याओंका प्रथमोपदेष्टा है, जिसने अनेक वार अनेक राजसभाओं में अनुमानादि विषयोंपर अनेक मिथ्या प्रवादियोंका निराकरण करके विजय प्राप्त किया है। फिर भी गरुडके द्वारा ब्राह्मणकी तरह ज्ञानका गवे जिसका भक्षण नहीं कर सकता उसको प्रज्ञापरीपहका विजयी समझना चाहिये। अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy