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________________ अथ नवमोऽध्यायः। वनमार Higiको परिक हो सकती है | होने में प्रधान साधओंको नित्यकर्मकी विधिका पालन करने में उद्यमी बनाने के लिये चवालीस पद्योंमें वर्णन करते हैं: शुद्धस्वात्मोपलम्भाप्रसाधनाय समाधये । परिकर्म मुनिः कुर्यात स्वाध्यायादिकमन्वहम् ॥१॥ निज आत्मस्वरूपमें सब तरफसे चित्तका हटकर लगजाना इसको योग अथवा समाधि कहते हैं। इस योगकी सिद्धि के पहले उसकी योग्यता उत्पन्न करनेकेलिये जो क्रियाएं पाली जाती हैं उनको परिकर्म कहते हैं। इसके भेदोंको आगे चलकर लिखेंगे । साधुओंको परिकर्म के स्वाध्यादिक भेदोंका प्रतिदिन पालन करना चाहिये। क्योंकि इनका पालन करनेसे ही समाधिकी सिद्धि हो सकती है। और उस समाषिके दारा ही निज शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो सकती है। क्योंकि निर्मल चित्रस्वरूप का लाभ होने में प्रधान कारण चित्तकी एकाग्रतारूप ध्यान ही है । जैसा कि कहा भी है कि: यदात्रिकं फलं किंचित् फलमामुत्रिकं च यत् । एतस्य द्वितयस्यापि ध्यानमेवाप्रकारणम् ।। अर्थात जीवोंको संसारमें जो आभ्यदायिक फल प्राप्त हुआ करते हैं. अथवा पारलौकिक निर्विकल्प आत्म सैंमुत्थ मुखादिका लाम हुआ करता है, उन दोनों ही लाभोंका प्रधान कारण ध्यान ही माना है। पारिक प्रथम भेद स्वाध्यायके प्रारम्भ करने और समाप्त करनेकी विधि बताते हैं: स्वाध्यायं लघुभक्त्या श्रुतसूर्योरहर्निशे । पूर्वेऽपरेपि चाराध्य श्रुतस्यैव क्षमापयेत् ॥ २॥ अध्याय ८४५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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