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________________ अनगार वृष्यभोगोपयोगाभ्यां कुशीलोपासनादपि । पुंवेदोदोरणात्स्वस्थः कः स्यान्मैथुनसंज्ञया ॥ ६४ ॥ वृष्य पदार्थोके भोग और उपयोगसे तथा कुशील पुरुषोंके सेवनसे और अंतरङ्गमें उदयको प्राप्त हुए पुवेद कषायके निमित से होनेवाली मेथुन संज्ञासे, क्या कोई भी पुरुष स्वस्थ-सुखी हो सकता है ? कभी नहीं। -चारित्रमोहनीय कर्मकी उस नोकषाय प्रकृतिको पुवेद कहते हैं कि जिसके उदय या उदीरणा होनेपर जीवको योनि अदिकमें रमण करने की इच्छा या तीत्र मोह उत्पन्न होता है । प्रकृतमें पुरुषको ही विनेय-~-पात्र श्रोता समझकर मैथुनसंज्ञ की उत्पत्तिका अन्तरङ्ग कारण पुंवेदकी उदीरणा बताया है। किंतु सामान्य मथुन संज्ञाका अंतरङ्ग कारण सामान्य से वेद नोकषाय ही है । अत एव यथास्थान स्त्रीवेद या नपुंसकवेदका ग्रहण करना चाहिये । कोमलता, अस्फुटता, कामदेवका तीव्र आवेश, नेत्रविभ्रम और सुखपूर्वक पुरुषके साथ रमण करने की कामना ये सब जीवेदके भाव हैं । इसके उल्टे पुरुषवेदके भाव हुआ करते हैं। और दोनों के मिश्ररूप नपुंसकवेदके हुआ करते हैं। प्रकृतमें पुंवेदकी उदीरणा होने के बाह्य कारण तीन बताये हैं-वृष्य पदार्थोंका भोग और उपयोग तथा कुशीलसेवा । जो पदार्थ काम के बढानेवाले तथा उद्दीप्त करनेवाले हैं ऐसे दूध बतासे आदिके भोजन पानसे तथा रमणीय उद्यानादिकका सेवन करनेसे और स्त्रीलम्पट तथा व्यसनी पुरुषोंकी सेवा उपासना करने अथवा उनके अधीन होकर रहने से पुंवेदकी उदीरणा होती है। यहांपर अपि शब्द भिन्न क्रमका बोधक है । अत एव इन तीनों अथवा इन में से एक दो निमित्त से भी पुंवेदकी उदीरणा होती है ऐसा समझना चाहिये. अथवा इन कारणोंसे और पुत्रदकी उदारणासे मैथुन संज्ञा उद्भूत होती है ऐसा समझना चाहिये । जैसा कि आगममें चार कारणोंसे मैथुन संज्ञाका उत्पन्न होना बताया है। यथाः अध्याय ३५६
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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