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अनगार
वर्तमान क्षेत्र और कालवी साधुओंके प्रसादसे अपनी आत्मामें प्रशमकी प्राप्ति हो, ऐसी भावना प्रकट करते हैं:--
भक्तत्यागविधेः सिसाधयिषया येाद्यवस्थाः क्रमा,चत्वारिंशतमन्वहं निजबलादारोढुमुद्युञ्जते । चेष्टाजल्एनचिन्तनच्युताचदानन्दामृतस्रोतसि,
स्नान्तः सन्तु शमाय तेऽद्य यमिनामत्राग्रगण्या मम ॥ ९९ ॥ जो संयमियोंमें अग्रगण्य साधुजन आज इस भरतक्षेत्र और पंचमकालमें रहकर भी भक्त प्रत्याख्यान मरणको सिद्ध करनेकी इच्छासे अहं लिङ्ग आदि चालीस पर्यायों--अवस्थाऑपर प्रतिदिन और अपनी शक्तिके अनुसार क्रमसे आरोहण करनेकेलिये सोत्साह प्रवृत्त रहा करते हैं, और चेष्टा वचन तथा विचारोंसे च्युन-मन वचन और कायके अगोचर चिदानन्द स्वरूप अमृतके स्रोतमें अवगाहन करके शुद्धिको प्राप्त हो चुके हैं, उनके प्र. सादसे मुझे प्रशमकी प्राप्ति हो । क्योंकि ऐसे महातपस्वियोंके स्मरणसे अवश्य ही आत्मामें शान्तिका लाम होता है।
जो साधु आत्माका संस्कार करते समय कान्दी आदि पांच प्रकारकी संक्लिष्ट भावनाओंको छोडकर तप श्रुत सत्व एकत्व और धृति इन पांच भावनाओंका प्रयोग करता है वह सहजमें ही परीषहोंको जीत सकता है, ऐसा उपदेश देते हैं:
कान्दीप्रमुखाः कुदेवगतिदाः पञ्चापि दुर्भावना,स्त्यक्त्वा दान्तमनास्तपःश्रुतसदाभ्यासादीबभ्यभृशम् । भीष्मेभ्योपि समिद्धसाहसरसो भूयस्तरां भावय - नेकत्वं न परीषदतिसुधास्वादे रतस्तप्यते ॥१०॥
अध्याय