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________________ अनगार प्रागेव शक्तोऽशक्तोऽन्त्ये त्यक्त्वा राज्यं विपन्मयम् । धीरः समाधिना मृत्त्वा भवाम्भोधेः समुद्धरेत् ॥ मनुष्य पहली अवस्थामें शक्त और अन्त्यकी अवस्थामें अशक्त रहा करते हैं। अत एव धीर पुरुषोंको पहली अवस्थामें ही विपत्तियोंसे भरे हुए राज्यको छोड देना चाहिये और अन्तमें समाधिपूर्वक मरण. कर संसारसमुद्रसे पार हो जाना चाहिये। __इस प्रकार स्त्री परिग्रहके रागसे अन्धे हुए पुरुषों के दूषणोंको प्रकट कर अब पुत्रमोहसे अन्धे हुओंके दोष बताते हैं: यः पत्नी गर्भभावात्प्रभृति विगुणयन् न्यक्करोति त्रिवर्ग, प्रायो वः प्रतापं तरणिमानि हिनस्त्याददानो धनं यः। मूर्खः पापो विपद्वानुपकृतिकृपणो वा भवन् यश्च शल्य, त्यात्मा वै पुत्रनामास्ययमिति पशुभिर्युज्यते स्वेन सोपि ॥ १४ ॥ जीव जब पिताके वीर्य और माताके रजको ग्रहण करलेता है तब उसको गर्भ कहते हैं । यथाः शुद्ध शुक्रात वे सत्त्वः स्वकमकुशचोदितः । गर्भः संपद्यते युक्तिवशादग्निरिधारणा ।। ___ अपने उपार्जित कर्मके उदयसे प्रेरित हुआ जीव जब शुद्ध रजवार्यके पिंडमें आकर उपस्थित होता है तब । उसको गर्भ कहते हैं। जिस प्रकार भस्मसे आच्छन्न अङ्गारमें अग्नि छिपी रहती है। इस स्वरूपके होबाने अथवा प्राप्त करलनेको ही गर्मभाव कहते हैं । इस गर्मभावसे लेकर-जबसे जीव माताके उदरस्थ रजनीक निको ग्रहण कर अध्याय ४२७ ४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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