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________________ अनगार पांच महाव्रतादिके श्रवण और धारण करनेमें तथा उनमें दोषोंके लग जानेपर उन दोषोंके दूर करनेमें सदा तत्पर रहनेवाला साधु इस प्रतिक्रमण क्रिया का कर्ता है। क्योंकि वही द्रव्यादि विषयक अतीचारोंसे आत्माको निवृत्त रखता है, तथा यदि अतीचार लग भी जाय तो उनकी वह शुद्धि भी करता है । जिनसे कि आत्माको बचाकर रक्खा जाता है, अथवा जो दूर करने-छोडने योग्य हैं ऐसे मिथ्यात्वादिक पापोंको और उनके निमित्तभूत द्रव्यादिकोंको प्रतिक्रम्य-प्रतिक्रमण क्रियाका कर्म समझना चाहिये । "मिथ्या मे दुष्कृतं भवतुमेरे सम्पूर्ण गप मिथ्या-निःशेष हों" इस तरहके शब्दोंसे प्रकट होनेवाले परिणाम अथवा ये शब्दसमूह ही इस क्रियाके करण हैं। क्योंकि इन्हीके द्वारा पापोंका उच्छेदन किया जाता है । व्रतोंकी शुद्धि पूर्वकना अथवा तद्रुप परिणत जीव इस क्रियाका अधिकरण समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि: ४७९ जीवो दु वडिक्कमओ दवे खेत्ते य काल भावे प। पडिगच्छदि जेणुजहिं तं तस्स भवे पडिकमणं ॥ पडिकमिदव्वं दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं ति विहं। खेत्तं च गिहादीयं कालो दिवसादिकालम्हि ॥ मिच्छत्ते पडिकमणं तह चेव असंजमे पडिक्कमणं । कसाए पडिक्कमणं जोगेसु य अपसत्थेसु ॥ अध्याय प्रतिक्रमणके विषय में पांच बातें विचारणीय हैं।-कर्ता द्रव्य क्षेत्र काल और भाव । कर्चा जीव है। क्योंकि वह आत्माको अपराधोंसे निवृत्त रखने या करनेमें स्वतन्त्र है। जिनका प्रतिक्रमण किया जाता है वह कर्म रूप वस्तु ही द्रव्य है । वह तीन प्रकारकी मानी है, सचित्त अचित्त और मिश्र । गृह गुहा वसतिका वन उपवन मन्दिर आदि स्थान प्रतिक्रमण के क्षेत्र हैं । दिन रात्रि प्रातः काल मध्यान्ह आदि नित्य नैमितिक समय ही प्रतिक्रमणके काल हैं । साव नाम परिणामका है। वह चार प्रकारका है, मिथ्यात्व असंयम कपाय और अप्रशस्त योग । प्रतिक्रमण करनेकी विधि बताते हैं: ७७६
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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