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________________ बनगार २८३ संसारमें अपकीर्ति दुर्गति आदि फल नहीं देसकता । किंतु उससे उसके अनेक प्रकारके गुण-उपकार प्रगट हुआ करते हैं । उससे उसके अशुभ कर्मोंकी निर्जरा होती अथवा सत्पुरुषोंकी सभामें उसकी साधुता प्रसिद्ध होती, यद्वा जनतामें प्रमाणता प्रख्यात होती है । एवं उस क्षेत्रके अधिष्ठाता देव उसका पक्षपात कर साहाय्य भी किया करते हैं। भावार्थ-दयालु पुरुषपर किसी प्रकारका अपराध नहीं लग सकता । किंतु जो निर्दय है उसके सिरपर दूसरेपर लगाया हुआ अपराध भी आपडता है; ऐसा आश्चर्यके साथ दृष्टांतपूर्वक बताते हैं: अन्येनापि कृतो दोषो निस्त्रिंशमुपतिष्ठते । तटस्थमप्यरिष्टन राहुमर्कोपरागवत् ॥ १२ ।। दुसरेके द्वारा किया गया दोष-अपराध, तटस्थ भी निर्दय व्यक्तिके सिर आपडता है । जिस तरहसे कि अरिष्ट विमानके द्वारा होनेवाला अर्कोपराग-सूर्यग्रहण गहुके सिर पडता है । भावार्थ-सूर्यग्रहण राहुके द्वारा होता है, यह बात जगत्में प्रसिद्ध है। किंतु वह होता है वस्तुतः राहुके तटस्थ समान मंडलवाले अरिष्ट विमानके आच्छादनसे । यथाः- . १- यहांपर ग्रंथकारने राहुको अरिष्टका तटस्थ जो बताया है सो दोनोंका समान मंडल है इसलिये बताया है न कि एक क्षेत्र की अपेक्षा । क्योंकि दोनोंके क्षेत्रमें बहुत अंतर है। आगमप्रमाणमें भी जा चंद्रमा और सूर्यके नीचे राहु और अरिष्टका विमान बताया है उसका भी अर्थ चंद्रमाके नीचे राहु और सूर्य के नीचे अरिष्ट विमान है । क्योंकि ग्रंथान्तरों में सूर्यसे अस्सी योजन ऊपर चंद्रमाका विमान बताया है। यथा ३ णवदुत्तरसत्तसया दससीदीचदुद्गतियचउकं ।। तारा रवि ससि रिक्खा बुह भागव अंगिरारसणी
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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