SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • अनगार साधन सम्यग्दर्शनादिक अथवा उसके कारण अपूर्व चैत्यालय समीचीन उपाध्याय तथा धर्माचार्यादिककी सिद्धि-प्राप्तिके लिये अपने स्थानसे उस साधनके स्थानपर जानेकी इच्छा होनेपर ऐसे मार्गसे जो कि लोकोंके द्वारा अच्छी तरह विध्वस्त है-जिसमें कि मनुष्य हाथी घोडा गाढी आदि निरन्तर अच्छी तरह चलते हैं और जिसमें सूर्यको किरणे अथवा प्रकाश पडरहा हो; करुणाबुद्धिसे-दयार्द्रपरिणामोंसे और बडे प्रयत्न-सावधानताके साथ इस तरह मन्द मन्द पैर रखते हुए कि जिससे किसी भी जीवकी विराधना न हो-प्रत्येक जीवकी हर तरहसे रक्षा करते हुए और इसी लिये रात्रिमें नहीं किन्तु दिनमें तथा कुक्कटसंपात्य भृमि जूडाप्रमाण धरतीको शोधते हुए गमन करता है उसके ईर्या नामकी समिति होती है या समझनी चाहिये। जैसा. कि कहा भी है कि: मग्गुज्जोउवओगालंबणसुद्धीहिं इरियदो मुणिणो । सुत्ताणुवीचिभणिया इरिपासमिदी पवयणम्हि ।। जो उद्योत उपयोग और आलम्बनशुद्धिके द्वारा मार्गमें गमन करता है उसी मुनिके सूत्रोक्त निर्दोष ईर्यासमिति हो सकती है ऐसा प्रवचनमें कहा है। क्रमप्राप्त भाषा समितिका लक्षण दो श्लोकोंमें बताते हैं .... कर्कशा परुषा कटी निष्ठुरा परकोपिनी । छेदङ्करा मध्यकृशातिमानिन्यनयङ्करा ॥ १५ ॥ भूतहिंसाकरी चेति दुर्भाषां दशधा त्यजन् । हितं मितमसंदिग्धं स्याद्भाषासमितो वदन् ॥ १६६ ॥ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy