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________________ बनमार STE-JTANTR- 3BDASTARANG तत्कर्मसप्तके क्षिप्ते पङ्कवत्स्फटिकेम्बुवत् । शुद्धेऽतिशुद्धक्षेत्रज्ञे भाति क्षायिकमक्षयम् ॥ ५५ ॥ _ जिस प्रकार पङ्किल जलमेंसे पङ्कके भागका सर्वथा नाश होजानेपर बाकीका खच्छ जल किसी स्फटिकके वर्तनमें यदि रखदिया जाय तो वह अत्यंत शुद्ध और शोभायमान होता है और फिर उसमें अशुद्ध होनेका कोई कारण नहीं रहता। इसी प्रकारसे उपर्युक्त सात कोंके तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबंधी कषायके सर्वथा नष्ट होजानेपर-सामग्रीविशेषके द्वारा दूर होजानेपर उद्भूत होनेवाले सम्यग्दर्शनको क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। वह अत्यंत शुद्ध और अक्षय होता है। क्योंकि उसमें शङ्कादिक दूषण नहीं होते और वह शुद्धऔपशमिक सम्यग्दर्शनसे भी अत्यंत शुद्ध होता है। क्योंकि इसके प्रतिबंधक कारण सर्वथा नष्ट होजाते हैं। और यह उत्पन्न होनेके बाद कभी नष्ट नहीं होता इसलिये अविनाशी है । इस प्रकार यह सम्यग्दर्शन अत्यंत निर्मल आत्मामें सदा कालतक प्रकाशमान रहा करता है । क्योंकि यह कभी भी किसी भी निमित्तसे क्षुब्ध नहीं हो सकता । जैसा कि आगममें भी कहा है, यथाः रूपैर्भयंकरैर्वाक्यहेतुदृष्टान्तदर्शिमिः । जातु क्षायिकसम्यक्त्वो न क्षुभ्यति विनिश्चलः ॥ क्षायिक सम्यग्दृष्टि के परिणाम इतने निश्चल होते हैं कि वह भयंकर स्वरूपको देखकर अथवा वैसे वाक्यों - को सुनकर यद्वा हेतु और दृष्टान्तको प्रकाशित करनेवाले हेत्वाभास तथा दृष्टान्ताभाससे भरे हुए वाक्योंको भी सुनकर कभी क्षुब्ध नहीं होता। भावार्थ--उपर्युक्त सात प्रकृतियोंका सामग्रीविशेषके द्वारा सर्वथा अभाव होजाना ही क्षायिक सम्यग्दशनका अन्तरङ्ग कारण है। खध्याय NAYAS
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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