SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनगार २२७ निर्जन्तौ कुशले विविक्तविपुले लोकोपरोधोज्झिते, प्लष्टे कृष्ट उतोषरे क्षितितले विष्टादिकानुत्सृजन् । युःप्रज्ञा प्रमणेन नक्तमभितो दृष्ट विभज्य विधा, सुस्पृष्टेप्यपहस्तकेन समितावुत्सर्ग उत्तिष्ठते ॥ १६९ ॥ द्वीन्द्रियादिक जीवोंसे तथा हरित त्रणादिकमे रहित एवं प्रशस्त - सर्पकी वामी आदि भयके कारणोंसे रहित तथा विविक्त - एकान्त जनशून्य अथवा अशुचि आदि कूडे कचडे मे रहित, और जहांपर किसी प्रकारका संकट उपस्थित न हो, एवं जहां पर जाने अने या पैठने आदिमें किसी की किसी प्रकारकी रुकावट न हो, ऐसे दवाग्नि अथवा श्मशानाग्नि द्वारा दग्ध हुए स्थानमें, यद्वा हलके द्वारा बार बार जोते गए खेतमें, अथवा स्थाण्डिल-खारी मट्टीवाली चीली जमीनमें जो साधु दिन के समय अपने मल मूत्र नाक थूक केश सप्तम धातु पित्त वमन आदि मलों को छोडता है उसके उत्सर्ग नाम की ममिाते कही जाती है । यदि कदाचित् रात्रिके समय मलादिककी बाधा हो तो उसकी निवृत्ति केलिये माधुओं का उचित है कि वे प्रज्ञाश्रमणके द्वारा क्रमसे तीन भागोंमें विभक्त करके दिन के समय अच्छी तरह देखे गये स्थानमें ही मलादिकका उत्सर्ग करें। यदि फिर भी मलोत्सर्गके समय किसी जीवादिककी शंका हो तो उस शंकाको दूर करने केलिये अपने वाम हाथसे उस स्थानको मलोत्सर्गके पहिले ही स्पर्श करके देखलें। मावार्थ- साधुओंको प्राशुक, निर्मय, एकान्त पवित्र, संकटरहित, और ऐसी अनुपरुद्ध भमिमें जो कि दग्ध अथवा जोती हुई यद्वा ऊपर हो, अपने उपर्युक्त मलोंका परित्याग करना चाहिये । और रात्रिके समय प्रज्ञाश्रमणके द्वारा निर्दिष्ट स्थानमें मलोत्सर्ग करना चाहिये । बध्याय PSINDH
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy