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________________ अनगार पीरपहोंका विजय कैसा व्यक्ति कर सकता है। - दुःख भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाद्भश्यत्यदुःखश्रितात्, तत्तन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोद्धं मुमुक्षुर्नवम् । भोक्तुं च प्रतनं क्षुदादिवपुषो द्वाविषतिं वेदनाः, स्वस्थो यत्सहते परीषहजयः साध्यः स धीरैः परम् ॥३॥ पाद संवमी साधु विना दुःखोंका अनुभव किये ही मोक्षमार्गका सेवन करे तो वह उसमें दुःखोंके उप. स्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है । अत एव साधुओंकेलिये परीषहोंको जीतनेका उपदेश है। जैसा कि कहा भी है कि परिषोढव्या नित्यं दर्शनचारित्ररक्षणे नियताः । संयमतपोविशेषास्तदेकदेशाः परीषहाख्याः स्युः ॥ ___ अत एव जो मुमुक्षु समीचीन ध्यानरूपी मोक्षमार्गको स्वीकार करके उसके द्वारा नवीन दुष्कर्मों का निरोध करनेकेलिये और पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा करनेकेलिये आत्मस्वरूपमें स्थिर होकर क्षुधा पिपासा आदि बाईस प्रकार की वेदनाओंको सहता है उसीको परीषहविजयी कहते हैं । वीर पुरुष ही परीषहविजयको सिद्ध कर सकते हैं। जो दुःखोंके उपस्थित होनेपर रंचमात्र भी कातरता प्रकट नहीं करते ऐसे धीर पुरुष ही परीपहविजयको सिद्ध कर सकते हैं। भावार्थ--क्षुधादिक वेदनाओंके परीपह और आत्मस्थ होकर उनके सहने को परीषहजय कहते हैं धीर व्याक्ति ही इस विजयको सिद्ध करने का अधिकारी है । और इसका फल नवीन कुकर्मोंका संवर तथा प्राचीन कर्मोंकी निर्जरा होना है । अत एव मुमुक्षुओंको कातरता छोडकर परीवहोंपर विजय प्राप्त करना चाहिये । क्यों कि ऐसा करनेपर ही संवर और निर्जराके सिद्ध होजानेसे मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है। अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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