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________________ भनगार । जिनका कि अनतानुबान पच्चीस प्रकृतियांका यानद्धि ३ अनंतानुवाच डल १ स्वा २ नरक आयु ३ नरक गति ४ एकेन्द्रिय ५ द्वीन्द्रिय ६ त्रीन्द्रिय ७ चतुरिन्द्रिय जाति ८ हुण्डकसंस्थान ९ असंप्राप्तासृपाटिका संहनन १० नरकगत्यानुपूर्व्य ११ आतप १२ स्थावर १३ सूक्ष्म १४ अपर्याप्त १५ साधारण १६ । जिनका कि अनंतानुबान्ध कषायके निमित्तसे उत्पन्न हुए असंयमसे एकेन्द्रियसे लेकर सासादन गुणस्थान तकके जीवोंके बंध हुआ करता है उन पच्चीस प्रकृतियोंका आगे चलकर--तृतीयादि गुणस्थानोंमें संवर होजाता है। उनके नाम ये हैं-निद्रानिद्रा १ प्रचलाप्रचला २ स्त्यानगृद्धि ३ अनंतानुबंधि क्रोध ४ मान ५ माया ६ लोभ ७ स्त्रीवेद ८ तिर्यगायु ९ तिर्यग्गति १० चार संस्थान ११-१४ ( न्यग्रोध परिमंडल १ वाति • कुब्जक ३ वामन ४) चार संहनन १५-१८.[ वज्रनाराच " नाराच २ अर्धनाराच ३ कीलक ४] तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य १९ उद्योत २० अप्रशस्त विहायोगति २१ दुर्भग २२ दुःस्वर •३ अनादेय २४ नचिगोत्र २२ । तीसर गुणस्थानमें किसी भी प्रकृतिकी बंधव्युच्छित्ति नहीं होती अत एव इस अपेक्षासे चतुर्थ गुणस्थान में किसी भी प्रकृतिका संवर भी नहीं होता। तीसरे गुणस्थानमें आयुकर्मका बंध नहीं हुआ करता। तो भी इ सको संवर नहीं कह सकते क्योंकि आगे चलकर उसका बंध होता है । पांचवें गुणस्थानमें उन १० प्रकृतियोंका संवर हुआ करता है जिनका कि एकेन्द्रियसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानतकके जीव अप्रत्याख्यान कषायके निमित्तसे उत्पन्न हुए असंयमके द्वारा बंध किया करते हैं। वे दश प्रकृति ये हैं-अप्रत्याख्यान क्रोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ मनुष्य आयु ५ मनुष्यगति ६ औदारिकशरीर ७ औदारिक अङ्गोपाङ ८ वज्रर्षभनाराचसंहनन ९ मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी १० । जिनका कि प्रत्याख्यान कषायके उदयसे उत्पन्न हुए असंयमके द्वारा एकेन्द्रियसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतकके जीवोंके बंध हुआ करता है ऐसी चार प्रकृति हैं; प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ । इनका छठे आदि गुणस्थानोंमें संवर हुआ करता है । प्रमादके निमित्तसे असातावेदनीय अरति शोक अस्थिर अशुभ और अयशस्कीर्ति इन छह प्रकृतियोंका आस्रव होता है। अतएव छठे गुणस्थानतक इनका बंध होता है और सातवेंसे संवर होजाता है। देवायुके बंधका प्रारम्भ प्रमत्तके ही होता है। किन्तु उससे निकटवर्ती अप्रमत्त गुणस्थानमें भी उसका बंध हुआ करता है । अतएव उसके आगे आठवेंसे उसका संवर होता है। संज्वलन कषायके निमित्तसे जिन प्रकृतियोंका आस्रव होता है उनका अध्याय ११४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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