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अनगार
ग्रंथकर्ताकी प्रशस्ति.
__ एक सपादलक्ष नामका देश था जो कि त्रिवर्गसम्मति से युक्त और लवणसमुद्रका भूषणरूप था। उसमें लक्ष्मी के क्रीडागृहके समान मंडलकर नामका एक महान् दुर्ग था। वहीं पर निर्मल व्याघ्रवाल जातिके श्री सल्लक्षण पिता और श्रीमती रस्नीबाई माताकी कुक्षिसे श्री जिनेन्द्र भगवान् के प्ररूपित सिद्धान्तमें श्रद्धा रखनेवाले आशाधरका जन्म हुआ था। उन्होने जिस प्रकार अपनेको सरस्वती-वाणोके गर्भसे उत्सम किया था उसी प्रकार सरस्वती नामकी अपनी स्त्रीसे लाइड नामके पुत्रको उत्पन्न किया था, जो कि अत्यंत गुणवान् था और जिसने मालवाके अधिपति श्री अर्जुन देवको अपने ऊपर अनुरंजित कर रक्खा था!
कवियों अथवा विद्वानोंके मित्र श्री उदयसेन मुनिने अत्यंत प्रीतिपूर्वक जिन बाशापरका यह कहकर अभिनंदन किया था कि----
व्याघेरवाळवरवंशसरोजहंसः काव्यामृतीघरसपानसुतृप्तगात्रः ।
सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षुरानाधरो विजयते कलिकालिदासः ।। अर्थात-जो व्याघरवाल नामके निर्दोष वंशरूपी सरोज-कमलको हंसके समान है, जिपका परीर काव्यरूपी अमृत के समूहका रसपान करनेसे अत्यंत तुम हो चुका है, जो नीति अथवा न्यायशास्त्र के द्वारा सम्पूर्ण संसारको देखनेवाला है, अथवा जिसका न्यायशास्त्र संसार केलिये चक्षु के समान है, एवं जो इस कलिकाल में कालिदासके समान है वह सल्लक्षणका पुत्र आशाधर सदा जयवंत रहो।
१-० भाशावर जो की सरस्वतीपुत्र ऐसी पदवी था।