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बनमार
रक्खा है। क्योंकि यह निकट मध्यजीव रूपी कमलोंको चांदनी के समान आल्हादित करनेवाली है। धर्मामृत ग्रंथके सागार अनगार इन दोनों ही मागोंकी टीका मुमुक्षु विद्वानोंके द्वारा चिन्तनामें प्रवृत होती हुई कल्पकाल पर्यन्त स्थिर रहे।
जिस समयमें परमार वंशरूपी समुद्रको वृद्धिंगत करनेवाले चन्द्रमाके समान महाराज देवपालके औरस पुत्र श्रीमान् जैतुगि देव अपने खनके बलसे मालवाका भले प्रकार शासन कर रहे थे उसी समयमें नलकच्छ नामके नगरमें श्रीमन्नेमिनाथ भगवान्के चैत्यालयमें विक्रमसम्बत् १३०० कार्तिक सुदि पंचमी सोमवारको शुभ लग्नमें यह टीका पूर्ण की । अनुमानसे इस टीकाका प्रमाण अनुष्टुप् छन्दकी अपेक्षा १२२०० है। पथा-पहले अभ्यायमें १६०० दूसरेमें १४२७ तीसरेमें ३१८ चौथे में २६१५ पांच ६०९ छ?में १७५५ सातवेंमें १२.६ आठवेंमें १५४५ और नौवेंमें १०७५ ।
सुख और उसके कारणोंकी प्राप्ति रूप अथवा दुःख और उसके कारणों के निवारणरूप यद्वा उनके भी कारण प्रतिकारणरूप शांति और कल्याण समस्त संसारकेलिये श्री शतिनाथ भगवान् सदा विस्तृत करो । धर्मका सेवन करनेवाले भव्य प्राणियों के साथ अम्युदय और मोक्षरूप लक्ष्मी सदा आलिंगन करे । जगत नीतिका प्रयोग सदा बढता रहे । पृथ्वीका शासन करनेवाला राजा अग्रणी और बलवान् हो । करिजन समीचीन विद्याके रसको प्रकट करनेवाली ही कविता किया करें । संसारमें पापका नाम भी न रहे । अथवा क्या २ और कितनी प्रार्थना की जाय, अत एव अंतमें एक ही प्रार्थना है.कि परमनिश्रेयसका साधनरूप जिनमगवान्का शासन सदा जयवंत रहो।
इस प्रकार महापंडित आशाधररचित और मव्यात्मा हरदेव द्वारा अनुमोदित अनगार धर्मामृतकी टीका समाप्त हुई।
शुभम् ।