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बनगार
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खच्पाय
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लुंचन करनेसे, दुःखोंके सहन करनेका अभ्यास होता है । जिससे कि परीषह और उपसर्गों के जीतने की कठिनता दूर होती है । और कायक्लेश आदि तपकी सिद्धि होकर शरीर में पूर्ण निर्ममताका भाव जागृत व दृढ होता है । अतएव जिसप्रकार नग्नतामें ये और इनके सिवाय दूसरे मी अनेक गुण बताये हैं उसी प्रकार केशोत्पाटन नामक मूलगुण में भी समझने चाहिये । अतएव ऐसा कहा भी है कि:
काकण्या अपि महो न विहितः क्षौरं यया कार्यते, चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपि वा तत्सिद्धये नाश्रितम् । हिंसाहेतुर हो जायपि तथा यूकाभिरप्रार्थने, बैंगग्यादिविवर्धनाय यतिभिः केशेषु लोचः कृतः ॥
अर्थात् - निर्वाण पथिक माधुजन अपने पास एक कौढी भी नहीं रखते जिससे कि औौरकर्म कराया जा सकता है। स्वयं क्षौर कर्म करनेके लिये अपने पास अख भी नहीं रखते । क्योंकि उससे चित्तमें विक्षेप उत्पन्न होता है । जटा बढाना इसलिये ठीक नहीं कि वह जूं आदि के द्वारा हिंसाका ही साधन है । अत एव सर्वोत्तम उपाय यही हाथोंसे उनका उत्पाटन कर दिया जाय जिससे कि उल्टी वैराग्य आदि गुणोंकी वृद्धि ही हुआ करती है:अस्नान नामके मूलगुणका समर्थन करते हैं:
न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् । जलशुद्धयाथवा यावदोषं सापि मतार्हतैः ॥ ९८ ॥
जो ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करनेवाले हैं उनके अशुद्धिका कारण ही नहीं रहता । अत एव उसको दूर करनेकेलिये उन्हे जलशुद्धि - स्नान करनेकी भी क्या आवश्यकता है ? उससे उनका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । तथा खासकर जो आत्मदर्शी-योगी है--जो ज्ञान ध्यान स्वाध्याय और तपस्या तथा ब्रह्माचरण में ही रत रहते हैं, और इसी लिये जिनका शरीर स्वयं पवित्र है उनके लिये तो यह स्नान किम प्रयोजनका ! हां, यह वात अवश्य है कि यदि कदाचित् अस्पृश्यका स्पर्श आदि दोष उपस्थित हो जाय तो उसकी शुद्धिकेलिये उसकी
धर्म
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