________________
अनगार
उन्हे आवश्यकता है । सो इसकेलिये जैनाचायाँने भी ब्रह्मचारियों व योगियोंकेलिये जलशदि मानी ही है। जैसा कि श्री सोमदेव सूरीने भी कहा है कि:
ब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् । मुनीनां स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्य विधिर्मतः ।। सङ्गे कापालिकात्रेयीचण्डालशवरादिमिः । आप्लुत्य दण्डवत्सायाज्जपेन्मन्त्रानुपोषितः।। एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके। .
दिने शुध्यन्त्यसंदेहमृतौ व्रतगवाः स्त्रियः ।। अर्थात जो ब्रह्मचारी हैं, और जिनका आत्मा अपने ही में रमण करनेवाला है उन मनियोकेलिये स्नान अनावश्यक है। किंतु दोष उपरिपत होनेपर उसकी विधि मी मानी है। जैसे कि कापालिक आत्रेयी चण्डाल और भील आदिसे स्पर्श हो जानेपर अपने शरीरको अच्छीतरह भिगोकर दण्डस्नान करना चाहिये, और उपवासपूर्वक मंत्रका जप करना चाहिये । जो व्रतिक स्त्रिया हैं वे एकान्तरसे या तीनरात्रि के बाद निःसंदेह शुद्ध समझी जाती हैं। इसी प्रकार और भी कहा है कि:
रागद्वेषमदोन्मताः स्त्रीणां ये वशवर्तिनः ।
न ते कालेन शुद्ध्यन्ति नावास्तीर्थशतैरपि । अर्थात-जो रागद्वेष आदि कषायमदसे उन्मत्त रहनेवाले और स्त्रियों के वशीभूत रहनेवाले-अब्रह्म के सेवन करने वाले हैं वे सैकडों तीर्थों में स्नान करके भी कमी शुद्ध नहीं हो सकते ।
अंतमें इस अध्यायका उपसंहार करते हुए बताते कि यहांपर जो नित्य और नैमिनिक क्रियाओंका स्वरूप बताया है उनका यथावत् पालन करनेसे क्या फल प्राप्त होता है:
नित्या नैमित्तिकीश्चेत्यवितथकृतिकर्माङ्गवाह्यश्रुतोक्ता,
९२९