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अनगार
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ऐसी अवस्थामें यदि समपाद और अंजलिपुटको मोजनके कालका विशेषण माना जाय तो उपर्युक्त कोई भी
अंतराय नहीं बन सकता । अत एव उने भोजनकाही विशेषण मानना चाहिये । अर्थात् जब २ भी तीन महत 'कालके भीतर भोजन क्रियाको मुनि प्रारम्भ करें तब २ ही उन्हे समपाद और अंजलिपुटके द्वारा भोजन करना
चाहिये. इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि किसी कारणके वश एक जगह भोजन क्रिया प्रारम्भ करके हस्त प्रथालनके अनंतर ही दूसरी जगह भी भोजन के लिये जा सकते हैं।
समपादका अभिप्राय यह है कि दोनों पैरों में चार अंगुलका अंतर रखकर दोनोंको एक सीधमें रखना । और भूमित्रयकी शुद्धि देखनेकेलिये जो कहा है उसका तात्पर्य यह है कि जहांपर आहार देनेके समय दाता खडा होता है, और जहाँपर आहार लेनेको पात्र खडे होते हैं, एवं दोनोंके मध्यमें उच्छिष्ट का जहां पतन होता है वे तीनों ही स्थान शुद्ध होने चाहिये। खडे होकर भोजन करने का प्रयोजन क्या है सो बताते हैं:
यावत्करौ पुटीकृत्य भोक्तुमुद्भः क्षमेऽद्मयहम्।।
तावन्नेवान्यथेत्यागूसंयमार्थ स्थिताशनम् ॥ १३ ॥ ... जबतक मैं खडे होकर और अपने हाथोंको जोडकर या उनको ही पात्र बनाकर उन्हीके द्वारा भोजन कर नेकी सामर्थ रखता हूं तभीतक मोजन करने में प्रवृत्ति करूंगा, अन्यथा नहीं । इस प्रतिज्ञाका निर्वाह और इन्द्रि य संयम तथा प्राणिसंयमका साधन करनेकेलिये मुनियोंको खडे होकर भोजन करने का विधान किया है।
भावार्थ-खडे होकर भोजन करनेके, प्रतिज्ञाका बोधन और निर्वाह, तथा आहारकी शुद्धि और दोषों. की निवृत्ति, एवं संयमकी सिद्धि, इस प्रकार अनेक प्रयोजन है। जैसा कि आचारटीमें भी बताया है, उसका आशय इस प्रकार है:
जा तक मेरे हाथ और पैर परस्परमें सम्बद्ध होने की शक्ति रखते हैं तभी तक मुझे आहार ग्रहण करना
मण्याय