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नगार
मुहूर्तमेकं द्वौ त्रीन्या स्वहस्तेनानपाश्रयः ॥ ९ ॥ दिनकी आदिकी और अंतकी तीन तीन घडी छोडकर बाकी दिनके मध्यमागमें एक बार खडे होकर दीवाल या स्तम्म आदिका सहारा न लेकर अपने हाथसे-अंजलिपुट बनाकर एक मुहूर्ने दो मुहूर्त अथवा तीन महूर्ततक आहार करना चाहिये।
भावार्थ-दिनके उदयकालकी तीन घडी और अस्तसमयकी तीन भ्रामरीकेलिये अयोग्य समय है। इस समयमें साधुओंको गोचरीकेलिये निकलना न चाहिये । और भोजन क्रियाका काल एकसे तीन मुहूर्त तकका है। इतने समयमें भोजन क्रिया समात करनी चाहिये । तथा भोजन करते समय साधुओंको किसीका सहारा न लेकर और दोनों पैरोंको घरापरमें जोडकर खडे होना चाहिये और भूमिके तीन स्थानोंकी शुद्धि देखकर दिनमें एक वार अंजलिका भेद न करके भोजन करनेको स्थितिमोजन कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:
उदयस्थमणे काले णालीसियवज्जियधि मज्यसि । एकहि दुय तिए वा मुहूत्तकालेयमतं तु ॥ अंजलिपुडेण ठिकचा कुण्डाविविवज्जणेण समपायं ।
पडिसुद्धे भूमितिये असणं ठिविभीषणं णाम ॥ अर्थात् -उदय और अस्तका तीन तीन घडीका काल छोडकर बाकीके दिनके मध्यके समयमें एक दो या तीन मुहूर्ततक एक वार भोजन करना इसको एकमुक्ति कहते हैं। तथा अंजलिपुटके द्वारा, खडे होकर,
और मीत वगैरहका आश्रय न लेकर, पैरोंको बराबर रखकर, भूमित्रयकी शुद्धि देखकर भोजन करना इसको स्थि. तिभोजन कहते हैं।
इस विषयकी विशेष व्याख्या आवार टीकामें की गई है । उसका उपयोगी समझकर कुछ आशय यहां भी दिया जाता है।
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