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अनगार
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अध्याय
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अनुचानोऽनवाङ् स्वप्याद्भुदेशेऽसंस्तृते स्वयम् । स्वमात्रे संस्तृतेऽल्पं वा तृणादिशयनेपि वा ॥ ९१ ॥
भूमिशयन मूलगुणको सिद्ध करनेकेलिये साधुओंको तृण घास आदिके आच्छादनसे रहित केवल भूमि• प्रदेश में ऊर्ध्वमुख अथवा अधोमुख न होकर दक्षिण अथवा वाम किसी भी एक पार्श्व भागले दण्डके समान लायमान होकर अथवा धनुषके आकारको धारण करके शयन करना चाहिये । अथवा अल्प आच्छादनसे युक्त भूमिपर भी शयन कर सकते हैं। किंतु यह आच्छादन जितनी भूमि में उन्हें सोना है उतनी में ही स्वयं करना चाहिये । अल्प आच्छादनसे प्रयोजन यह है कि जैसा गृहस्थ आदिकों का विस्तर हुआ करता है वैसा न होना चाहिये | भूमिके स्थानपर तृण आदि की बनी हुई चटाई यद्वा काष्टके बने हुए तख्त आदि अथवा पत्थरकी शि ला आदिके ऊपर भी शयन कर सकते हैं। इस विषय में मी अनाच्छादन और अल्प आच्छादनका सम्बन्ध लगा. लेना चाहिये । जैसा कि कहा भी है किं
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पासुअभूमिपदे से अप्पमसंथारिद् िपच्छण्णे । दंडवसेज्जं खिदिसयणं एयपासेण ॥
अर्थात् - प्राशुक और अल्पसंस्तरित अथवा असंस्तरित एवं एकान्त भूमि प्रदेश में दण्ड अथवा धनुषकी तरह एक पार्श्वमाग से सोना इसको क्षिति शयन कहते हैं ।
ऊर्ध्वमुख सोनेसे अधिकतर स्त्रप्रदर्शन होता है और अधोमुख सोनेसे प्रायः वीर्यस्खलन हो जाता है । इत्यादि दोषों के कारण पार्श्वभागले ही सोना बताया है। सो भी किसी एक ही विवक्षित पसलीकी तरफसे सोना चाहिये, अर्थात् करवट वगैरह न लेना चाहिये । निद्रा के कालका प्रमाण पहले बता चुके हैं।
खडे होकर भोजन करनेरूप मूलगुणकी विधि और उसके कालका प्रमाण बताते हैं:तिस्रोऽपास्याद्यन्त नाडीमध्येऽन्यद्यात् स्थितः सकृत् ।
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