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न कोमलाय बालाय दीयते व्रतमार्चतम् ।
न हि योग्ये महोक्षस्य भारे वत्सो नियोज्यते ।। जिनका शरीर कोमल है या जिनका चित्त अति मृदु और इन्द्रियां विषय सेवनकी तरफ प्रबल हैं ऐसे बालकोंको जिनदीक्षाका त्रिलोकपूज्य व्रत न देना चाहिये । जिस बोझेको बडा बैल ही ढो सकता है उसमें छोटे पच्छेको जोतना ठीक नहीं।
यहांपर कोई शंका कर सकता है कि दीक्षाका देना कषायको उत्पन्न करने और उसको पुष्ट करनेका साधन है। क्योंकि उसमें शिष्योंका परिग्रह बढता है, और उसके सम्बन्धसे पुनः उनके पोषण रक्षण और व्यवस्था आदिकी चिन्ता भी हुआ ही करती है. अवस्थाके अनुसार उनका निग्रहानुग्रह भी करना ही पड़ता है। और क्षपण आदिके समय साधुओंको वैयावृत्य आदिके लिये प्रेरित भी करना पड़ता है । इत्यादि अनेक कारणोंसे मुमुक्षुओंका इस कार्य में पहना उचित नहीं प्रतीत होता । परन्तु यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जिनका चारित्र सराग है उन्हीकेलिये आगममें इसका विधान किया है । जैसा कि कहा भी है कि
दसणणाणुवदेसो सिस्सग्गणं च पोसणं तेसिं ।
चरिया हि सरायाणं जिर्णिदपूजोवएसो य ।। । अर्थात्-सम्यग्दर्शनको दृढ करनेवाला और ज्ञानकी वृद्धि करनेवाला उपदेश देना, शिष्योंका ग्रहण करना, |
और उनका पोषण तथा रक्षण करना, एवं जिनेन्द्र भगवान्की पूजा आदिका उपदेश देना, यह सब सराग चारित्रके धारण करनेवाले मुनियोंका ही कार्य है। फिर इसके सिवाय ऐसा किये विना संघकी व्यवस्था और मोक्षमार्ग सुरक्षित नहीं रह सकते । अत एव यह कार्य भी किसी न किसीको करना ही पड़ता है।
जब तक महाव्रतोंको धारण न किया जाय तब तक केवल जिनलिंग-केशोत्पाटन दिगम्बरता और संज्ञा तथा पिच्छीके ग्रहण करनेसे ही आत्मामें लगे हुए दोषोंकी विशुद्धि नहीं हो सकती । इस बातको दृष्टान्त देकर स्पष्ट करते हैं:
पाष