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धनगार
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बध्याय
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सामायिक चारित्रकी उत्कृष्टता और वास्तविकता दिखाने के लिये यहां बताते हैं कि वस्तुतः चारित्र एक सामायिक ही है, महाव्रतादिके रूपमें जो चारित्रका वर्णन किया जाता है वह उसीका भेदरूपसे वर्णन है. सो इस प्रकारका वर्णन भी आदि तीर्थकर और अंतिम तीर्थकरने ही किया है, मध्यके अजितादि पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थकरोने नहीं । इसी बातको यहांपर स्पष्ट करते हैं, और साथ ही यह भी दिखाते हैं कि इस देशना के भेदका कारण क्या है । :
दुःशोधमृजुज्डरिति पुरुरिव वीरोऽदिशतादिभिदा । दुष्पालं वक्रजलैरिति साम्यं नापरे सुपट्टशिष्याः ॥ ८७ ॥
कर्मभूमि की आदि में मनुष्य परिणामोंके सरल किंतु मुग्ध - अज्ञानी हुआ करते हैं। अत एव वे सामायिक चारित्रको भले प्रकार समझ नहीं सकते और इसीलिये उसका अच्छी तरह पालन भी नहीं कर सकते । ast कारण है कि आदिनाथ भगवान्ने उनके लिये समायिक चारित्रको ही व्रतादिके मेद रूपसे बताया। इसी प्रकार अंतिम तीर्थकर के समय के मनुष्य वक्र और अज्ञानी हुआ करते हैं। वे या तो अपनी वक्रता के कारण अथवा अज्ञान ताके कारण सामायिक चारित्रके पालन करनेमें असमर्थ रहा करते हैं। उनसे उसका पालन होना अति कठिन रहता है । अत एव अंतिम तीर्थकर ने भी उसी सामायिकको व्रतोंके मेदरूपले उनको बताया। किंतु मध्यके बाईस तीर्थकरों के समय के मनुष्य योग्य और अच्छे समझू हुआ करते हैं । उनमें सरलता और जडता नहीं रहती । वे अपने विषय में भले प्रकार व्युत्पन्न रहा करते हैं। अत एव उन बाईस तीर्थकरोंने चारित्रको व्रतादिके मेदरूपसे न बताकर केवल सामायिक के ही रूपसे बताया ।
जिसको जिनलिंग की दीक्षा दीजाय उसमें किस किस प्रकारकी योग्यता होनी चाहिये सो बताते हैं:
सुदेश कुलजात्यङ्गे ब्राह्मणे क्षत्रिये विश ।
निष्कलङ्के क्षमे स्थाप्या जिनमुद्राचिंता सताम् ॥ ८८ ॥
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