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बनगार
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महाव्रतादृते दोषो न जीवस्य विशोध्यते ।
लिङ्गेन तोयादूषेण वसनस्य तथा मलः ॥ ८९॥ जिस प्रकार वस्त्रको जबतक पानीसे न धोया जाय तब तक केवल उसमें क्षारमट्टी लगानेसे ही उसका मल दर नहीं हो सकता, उसी प्रकार जब तक महावत धारण नहीं किये जाते तब तक केवल चिन्हमात्र जिन लिंगके धारण करनेसे आत्मामें लगे हुए राग द्वेषरूपी कषायोंका मल दूर नहीं हो सकता।
किंतु जिनमुद्राके विना केवल व्रतोंका धारण करना भी कार्यकारी नहीं हो सकता। अत एव दृष्टान्त द्वारा इस बातको भी दृढ़ करते हैं कि जिनलिंगसे युक्त ही व्रताचरण कषायोंका विशोधन कर सकता है:
मद्यन्त्रकेण तुष इव दलिते लिङ्गप्रहेण गार्हस्थ्ये ।
मुशलेन कणे कुण्डक इव नरि शोध्यो व्रतेन हि कषायः ॥॥ मट्टीके बने हुए यन्त्रविशेषके द्वारा जब धान्यके उपरका छिलका उतारकर दूर कर दिया जाता है तमी उसके भीतरकी वारीक-पतली भुसी मृसलके द्वारा छरकर दूर की जासकती है, अन्यथा नहीं। इसी तरहसे जिनलिंग और व्रतोंके विषय में समझना चाहिये । अर्थात् व्रताको प्रकट कर दिखाने वाला चिन्ह-जिनलिंग जब धारण कर लिया जाता है तभी उसके द्वारा गृहस्थाश्रमका भाव निदलित होता और तभी मुपलके समान उन व्रतोंके द्वारा अन्तर्मल-कषायका शोधन किया जा सकता है।
मावार्थ-चावलके समान मनुष्यको और भुसीके समान कषायको तथा ऊपरके छिलके के समान गृह स्थाश्रमको एवं मट्टीके यंत्र के समान जिन लिंगको समझकर मूसलके समान व्रतोंके द्वारा उसका शोधन करना चाहिये।
भूमिशयन नामके मूलगुणकी विधि बताते हैं:
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