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अनगार
इस प्रकार आकिश्चन्य महाव्रतका पालन करनेकेलिये पूर्णतया तयार होकर प्रवृत्त होनेवाले साधुओं को और भी आवश्यकीय शिक्षाएं दी, किंतु पहलेके-गृहस्थ अवस्थाके विभ्रम संस्कारके कारण उन शिक्षानुकूल प्रवृत्तियोंके करनेमें कहीं शिथिलता न होने लगे अत एव उसके प्रति तिरस्कार भाव रखनेकेलिये मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियविषयोंमें रागद्वेषके परित्यागरूप पांच भावनाओंको भाते हुए प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं:--
यश्चार्वचारुविषयेषु निषिध्य राग,द्वेषौ निवृत्तिमधियन् मुहुरा निवर्त्यात् । ईर्ते निवर्त्यविरहादनिवृत्तिवृत्ति,
तद्धाम नौमि तमसङ्गमसङ्गसिंहम् ॥ १४८ ॥ इन्द्रियोंके विषय स्पर्श रस गन्ध वर्ण और शब्द मनान और अमनोज्ञ दोनों ही प्रकारके होते हैं । संसारी प्राणियों को मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज्ञ विषयोंमें द्वेष हुआ करता है । किंतु जो मुमुक्षु इन विषयों में रागद्वेषरूप प्रवृत्ति--रति अरतिको छोडकर निवर्त्य पदार्थों के रहनेतक निवृत्ति और प्रवृत्तिसे रहित आत्मस्वरूपको प्राप्त होजाता है उस निरुपलेप निग्रन्थसिंहको मैं नमस्कार करता हूं अथवा उसकी निरंतर स्तुति करता हूं।
भावार्थ:-कर्मबन्ध और उसके कारणभृत पदार्थोंको निवर्त्य कहते हैं। क्योंकि उनको आत्मासे दूर करना है । जबतक निवर्त्य रागद्वेषरूप परिणति लगी हुई है तबतक साधुओंको निवृत्ति-रागद्वेषके छोडनेका ध्यान करना चाहिये । बार बार करनेपर जब यह ध्यान अभ्यस्त होजाय तब उस आत्मपदका ध्यान करना चाहिये जो कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंमे ही रहित है । किंतु इस अविनश्वर आत्मपदका ध्यान करनेके भी प. ले जिस निवृत्तिका ध्यान करना आवश्यक है उसके विषय निवर्त्य रागद्वेष हैं जिनका कि सम्बन्ध
बध्याय
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