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आठवां अध्याय ।
अनगार
ठपके विनयरूपसे षडावश्यकोंका पालन करनेकेलिये पहले संक्षेपमें कहा जा चुका है । अब उन्हीको ७३१ || खुलासा समझानेकेलिये निरूपण करते हैं:
अयमहमनुभूतिरितिस्ववित्तिविषजत्तथेतिमतिरुचिते ।
स्वात्मनि निःशङ्कमवस्थातुमथावश्यकं चरेत् षोढा ॥१॥ जो स्वसंवेदन प्रत्यक्षका विषय है, और जो " अहं"-" मैं" इस उल्लेखके द्वारा अनुभवमें आता है वह शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप आत्मा मैं ही हूं । इस अनुभवको ही स्वपरज्ञप्ति अथवा स्वसंविचि कहते हैं। जो इस आत्मसंवेदनके द्वारा जिसमें कि भिन्नताका अवभास नहीं हो सकता एसी एकतानताको प्राप्त हो गया है और जो रुचि अथवा श्रद्धाका विषय हो चुका है-अपने द्वारा अपनमें ही जिसका निश्चय किया जा चुका है ऐसे निज आत्मस्वरूपमें निःशङ्क-निश्चित सुखका अनुभव करते हुए अथवा निःसंशय-निश्चल होकर उत्पाद व्यय और धोव्यके समुदयरूप आत्मवृत्तिमें अबस्थित होने केलिये तपस्वियोंको छह प्रकारके आवश्यकोंका पालन करना चाहिये।
___ मुमुक्षुओंके छह आवश्यक कोंके निर्माणका समर्थन करनेकेलिये चौदह पद्योंमें स्थलशुद्धिका विधान अध्याय करते हैं। उसमें सबसे पहले आत्मा और शरीरके भेद ज्ञान तथा वैराग्यके द्वारा जिसकी शक्ति नष्ट करदी गई है ऐसा विषयों का उपभोग कर्मबन्धका कारण नहीं हो सकता, इस बातको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं:--
मन्त्रेणेव विषं मृत्य्वे मध्वरत्या मदाय वा। . न बन्धाय हतं ज्ञप्त्या न विरक्त्यार्थसेवनम् ॥२॥