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मनगार
चाहिये उस समयपर किये गये उपवासको अखण्डित कहते हैं। सर्वतोभद्र कनकावली आदि जो उपवासोंके भेद बताये हैं उनको विधिपूर्वक और मेदसहित पालन किये जानेपर साकार उपवास कहते हैं । जो अपनी इच्छानुसार उपवास किया जाता है उसको निराकार कहते हैं। एक दिनका दो दिनका तथा सोलह प्रहरका चौबीस प्रहरका बत्तीस प्रहरका इत्यादि काल की मर्यादा करके जो उपवास किया जाता है उसको परिमाण कहते हैं। जीवनपर्यन्तकोलये जो चार या तीन आदि प्रकारके आहारादिका त्याग करना उसको अपरिमाण या अपरिशेष उपवास कहते हैं। वन नदी आदिमसे निकलकर जानेपर या कोई और भी ऐसे ही कारण मिलनेपर अर्थात् मार्ग तय करनेके निमित्तसे जो किया जाय उस उपवासको वर्तनीयात कहते हैं। जो किसी कारणविशेषसे-उपसर्ग आदि निमिचोंकी अपेक्षासे किया जाय उसको सहेतुक कहते हैं। इस प्रकार उपवासके और उसके सम्बन्धसे प्रत्याख्यानके मी दश भेद हैं। इसी प्रकार विनय आदिकी अपेक्षासे, जिनकेकि निमित्तसे उसमें शुद्धि प्राप्त हुआ करती है, प्रत्याख्यानके चार भेद है । क्योंकि उसकी शुद्धिकै कारण भी चार हैं- विनय अनुवाद अनुपालन और भाव । विनय शब्द का अर्थ पहले लिखा जा चुका है। उसके पांच भेदों से यहांपर मोक्षमार्ग विषयक ही विनय ग्रहण करना चाहिये। मोक्षाश्रय विनयके भी पांच भेद है, दर्शनाश्रय ज्ञानाश्रय चारित्राश्रय तपआश्रय और उपचाराश्रय । इनमेंसे आदिके चार भेदोंको कृतिकर्म और पांचवें भेदको औपचारिक कहते हैं। इन विनयोंके निमित्तसे प्रत्याख्यान की शुद्धि हुआ करती है। अत एव प्रत्याख्यानकी विशुद्धिकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओं को इनका यथाशक्ति और आगमके अनुकूल पालन करना चाहिये । जैसा कि कहा मी है कि:
कृतिकर्मोपचारश्च विनयो मोक्षवम॑नि ।
पञ्चधा विनयाच्छुद्धं प्रत्याख्यानमिदं भवेत् ।। जिस तरह गुरुने निरूपण किया है उसी तरह-उसमें स्वर पंद मात्रा अक्षर आदिकी भी अशुद्धि न करके उनके वचनोंका यथावत् कथन करने को अनुवाद कहते हैं। इस प्रकार गुरुवाक्योंका अनुकथन करनेसे मी प्रत्याख्यानकी शुद्धि हुआ करती है । अतएव मुमुक्षुओंको इस आवश्यककी शुद्धि के लिये गुरुओक कहे मृजब पाठ भी करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
अध्याय