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अनगार
यह स्वाध्यायवाचना आदिके भेदसे पांच प्रकारका बताया है। खाध्याय करने वालेको अपने शरीरकी तथा परशरीरकी शुद्धिका विचार करना उचित है। इसी प्रकार स्वाध्याय करनेवालेको भूमिशुद्धिका भी विचार करके चारो दिशाओं में रुधिर मांसादिक चारसौ हाथकी दूरीपर ही छोडदेना चाहिये । तथा आगममें स्वाध्यायके लिये जो अयोग्य समय बताये हैं उनमें स्वाध्याय करना उचित नहीं है । यथाः
दिसिदाहउकपडणं विज्जुवउक्काऽसाणंदधणुगं च । दुगंधसंझ दुदिण-चंदगहा-सूरराहुजुदं च ।। कलहादिधूमकेद् धरणीकंपंच अंभगजं च ।
इश्चेवमाइबहुगा सज्झाए वज्जिदा दोसा ।। अर्थात्-अग्निदाह उल्कापात विजली उल्का वज्र इन्द्रधनुष् दुर्गध संध्या दुर्दिन चन्द्रग्रहण सूर्यग्रहण युद्ध धूम्रकेतु भूकम्प मेघगर्जन इत्यादि बहुतसे प्रियप्रधानकी मृत्यु आदि दूषित समय स्वाध्यायके लिये वर्जित कहे हैं। विनय पूर्वक श्रुतका अध्ययन करनेमें क्या माहात्म्य है सो बताते हैं:
श्रुतं विनयतोऽधीतं प्रमादादपि विस्मृतम् ।
प्रेत्योपतिष्ठतेऽनूनमावहत्यपि केवलम् ॥५॥ विनय पूर्वक जिस श्रुतका अध्ययन किया गया है वह यदि कारण वश प्रमादके निमित्तसे विस्मृत भी हो जाय तो भी वह कालान्तरमें या दूसरे जन्ममें ज्योंका त्यों-अविकलरूपमें आकर उपस्थित होजाता है. और पूर्ण केवलज्ञानतक को उत्पन्न कर देता है।
भावार्थ-विनयपूर्वक शास्त्र पढनेका यह फल है कि यदि वह कदाचित् प्रमादके द्वारा याद न मी रहे फिर भी वह जन्मान्तर तकमें सबका सब स्मरणमें आसकता है। बल्कि उसके निमित्तसे क्रमसे केवल-असहाय ज्ञानतककी उत्पत्ति हो सकती है। जैसा कि कहा भी है कि:
बध्याय
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