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बनगार
तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकदर्हदादेः॥ २६ ॥ .. अन्तराय कर्मके फलदेने की शक्ति शुभ परिणामोंक द्वारा नष्ट हो जाया करती है। तब वह इच्छित वस्तुकी प्राप्तिमें विघ्न डालनेको समर्थ नहीं हो सकता । अत एव शुभ परिणामोंको सिद्ध करनेकेलिये अहंदादिमसे इच्छानुसार किसीके भी गुणोंमें अनुराग रखकर प्रणाम स्तुति या बन्दना करना अभीष्ट प्रयोजनका साधक हो जाता है।
- मावार्थ:-अरिहंतादि पंचपरमेष्ठियों से किसी के भी गुणोंका स्मरण करनेसे और उनको नमसार आदि करनेसे परिणामों में जो विशुद्धि प्राप्त हुआ करती है उससे अन्तराय कर्मकी सामर्थ्य-फलदानशक्ति क्षीण होजाया करती है जिससे कि वह किसी भी इष्ट वस्तुकी प्राप्ति में विघ्न नहीं डाल सकता. फलत: किसी भी परमेष्ठीकी व. न्दना करने से सभी प्रयोजनोंकी सिद्धि हो सकती है।
इस प्रकार कायोत्सर्ग तककी क्रियाओंका क्रम आदि बताकर उसके अनंतरके कार्यको भी दो श्लोकोंद्वाग बताते हैं:
प्रोच्य प्राग्वत्ततः साम्यस्वामिनां स्तोत्रदण्डकम् । वन्दनामुद्रया स्तुत्वा चैत्यानि त्रिप्रदक्षिणम् ॥ २७ ॥ आलोच्य पूर्ववत्पञ्चगुरून नुत्वा स्थितस्तथा ।
समाधिभक्त्याऽस्तमल: स्वस्य ध्यायेद्यथाबलम् ॥ २८ ॥ चैत्यमक्ति और कायोत्सर्ग-व्युत्सर्ग तथा उसमें बताये गये ध्यानको कर चुकनेपर पहले की तरहशरीरको नम्रीभृत करने आदिकी जो विधि बताई है तदनुसार समायिकके स्वामी श्री चौबीस तीर्थकर भगवान् की भक्तिके भारसे पूर्ण होकर "थोस्सामि" प्रभृति स्तोत्र दण्डक बोलना चाहिये । पुनः तीन प्रदक्षिणा देते हुए वन्दनामुद्राके. द्वाग जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाकी स्तुति-वन्दना करनी चाहिये । उसके बाद एक शिर दो वाह
बध्याय