________________
बनगार
सिद्धचारित्रभक्तिः स्याबृहदालोचना ततः देवस्य गणिनो वा सिद्धयोगिस्तुती लघू ॥ चारित्रालोचना कार्या प्रायश्चित्तं ततस्तथा । सूरिभक्त्या ततो लठ्या गणिनं वन्दते यतिः॥ स्यात्प्रतिक्रमणा भक्तिः प्रतिक्रामेत्ततो गणी । वीरस्तुतिर्जिनस्तुत्या सह शान्तिनुतिर्मता ॥ वृत्तालोचनया सार्द्ध गुर्वी सूरिनुतिस्ततः । गुवालोचनया साधं मध्याचार्यनुतिस्तथा ॥ लध्वी सूरिनुतिश्चेति पाक्षिकादौ प्रतिक्रमे ।
ऊनाधिक्यविशुद्धषर्थ सर्वत्र प्रियभक्तिका ॥ अर्थात्-अरहंत देव अथवा आचार्य के सम्मुख सिद्धमक्ति चारित्रभक्ति और बृहदालोचनाके बाद लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिमक्ति की जाती है। पुनः चारित्रालोचनापूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिये और उसके वाद साधुओंको लघु आचार्यभक्ति मोलकर आचार्यकी वन्दना करना चाहिये । तदनंतर प्रतिक्रमण भक्ति करनी चाहिये और आचार्यको प्रतिक्रमण कराना चाहिये । पुनः वीरभक्ति और चतुर्विशति तीर्थकर भक्ति के साथ २ शांति भक्ति तथा उसके बाद चारित्रालोचनाके साथ २ बृहदाचार्य भक्ति और उसके बाद क्रमसे बृहदालोचनापूर्वक मध्य बृहदाचार्य भक्ति और अंतमें लघुआचार्य भक्ति बोलकर साधुओंको आचार्यकी वन्दना करनी चादिये। यह पाविकादि प्रतिक्रमण के समयकी क्रियाओंका संक्षेप है। इसके सिवाय न्यूनाधिकताके दोष की शुद्धिके लिये समी जगह समाधिमक्ति करनी चाहिये ।।
चारित्रासारमें भी ऐसा ही कहा है कि-"पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक प्रतिक्रमणे सिद्धचारित्रप्रतिक्रमण निष्ठितकरणचतुर्विंशतितीर्थकर भक्तिचारित्रालोचनागुरुभक्तयो वृहदालोचनागुरुभक्तिर्लघीयस्याचार्यमक्तिश्च करणीयाः।
व्रतारोपण आदि विषयोंकी अपेक्षा प्रतिक्रमण चार प्रकारका माना है किंतु उसमें वृहदाचार्य भक्ति और मध्य आचार्यमक्ति यहां नहीं करनी चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
अध्याय