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बनणार
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नैष्किंचन्यमहिंसा च कुतः संयमिना भवेत् । ते सङ्काय पदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥ विकारे विदुषां दोषो नाविकारानुवर्तने।
तन्नमत्वे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ॥ अर्थात्-विकृत अवस्थाके प्राप्त करनेमें विद्वान् दोष समझते हैं नकि निर्विकार स्वरूपके धारण करनेमें । अत एव ऐसा कौन विवेकी होगा जो कि नैसर्गिक नग्रताके विषय में द्वेष के वश होकर कष्मलताधारण करेगा। संयमी ममाओं का आकिंचन्य-अपरिग्रह और अहिंसावत तथा संयम कमी सिद्ध नहीं हो सकता यदि वे बक्कल चर्म या किसी भी तरह के वस्त्र के परिग्रहको धारण करनेका प्रयत्न करें, या उसका भाव रखें।
जो मुनियों के उद्देश्यसे तयार किया गया है ऐसे भोजनपान आदि द्रायके ग्रहण न करनेको औदेशिक पिण्डका त्याग कहते हैं।
वसतिका वनवानेवाला और उसका संस्कार करनेवाला तथा वहाँपर व्यवस्था अदि करनेवाला ये तीनों ही शय्याधर शब्दसे कहे जाते हैं। इनके पिण्ड अर्थात् मोजन उपकरण आदि द्रव्यके ग्रहण न करनेको शय्याधर पिण्डोज्झा कहते हैं । जहाँपर शय्याधर पिण्डका ग्रहण हो वहां दाताको धर्मफलके लोमसे आहारादिक प्रच्छन्न रूपसे ही योजित करना चाहिये । अर्थात् में शय्याधर हूं मेरे यहां भोजन होना ही चाहिये ऐप्ता भाव न रखकर अथवा इस बातको प्रकट न करके ही आहार दानमें प्रवृत होना चाहिये । जहाँपर ऐसा प्रकट करके आहारकी व्य. वस्थाकी गई हो उस आहारको ग्रहण न करना चाहिये । अथवा जो आहारदान नहीं कर सकता ऐसा कोई दरिद्र व्यक्ति है यद्वा ऐसा कोई लोभी पुरुष है तो उसको चाहिये कि वह वसतिकाका दान न करे । “मैं वसतिकाका दान तो करूंगा और आहारदान न करूंगा तो लोक मेरी निन्दा करेंगे। कहेंगे कि देखो इसकी वसतिका साधु ओने आकर निवास किया परन्तु इस मंदभाग्यने उनको आहार भी न दिया" ऐसा भाव रखकर जो वसतिका और बाहारका दान किया जाता है वह ग्रहण न करना चाहिये । क्योंकि ऐसा होनेते अत्यंत उपकारिताके कारण
माय