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बनगार
कृतिकर्म व्रतारोपणयोग्यत्वं ज्येष्ठता प्रतिक्रमणम् ॥ ८॥ मासैकवासिता स्थितिकल्पो योगश्च वार्षिको दशमः ।
तनिष्ठः पृथुकीर्तिः क्षपकं निर्यापको विशोधयति ।। ८१॥ . आचेलक्य, औद्देशिकपिण्डका त्याग, शय्याधरापिण्डकात्याग, राजकीयपिण्डका त्याग, कृतिकर्म, व्रता. रोपणयोग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासकवासिता, और योग, इस प्रकार स्थितिकल्प गुग दश हैं । इनका स्वरूप क्रमसे इस प्रकार समझना चाहिये ।
वनादिक सम्पूर्ण परिग्रहके अमावको अथवा नम्रताको आचलक्य कहते हैं । इसके अनेक फल है। व. त और संयमरूप आचरणमें इसके निमित्तसे विशुद्धि प्राप्त हुआ करती है। इन्द्रियों का अपने २ विषयोंसे निग्रह होता
अथवा उनपर विजय प्राप्त हुआ करता है। क्रोष मान माया आदि कषायों अथवा नोकषायोंका अभाव होता है। | ध्यान धारणा समाधि और स्वाध्याय आदिकी इसके ही निमितपे निर्विघ्नरूपसे और मलेप्रकार सिद्धि हुआ करती
है। अन्तरङ्ग और बहिरंग ग्रन्थि-मू रूप परिणाम अथवा बाह्य उपधियोंके संग्रहरूप ग्रंथि--बंधनका अभाव होता है। इससे राग और द्वेष वीतकर शरीरमें भी आदर भावका अमाव-उपेक्षा प्राप्त हुआ करती है । स्वतन्त्रताकी सिद्धि होकर आत्मा अपने ही अर्धान बनता-पराधीनताका अभाव होता है। मनोगत विशुद्धि-निर्मलताकी आचेलक्यके द्वारा ही प्रकटता हुआ करती है । मन और कृतिमें निर्मयता तथा समीजगह सुखपूर्वक और विना किसी झंझटके निर्वाहकी सिद्धि इसीसे हो सकती है । नम रहनेवाला साधु ही वस्त्र अथवा लंगोटी आदिके धोने घरी करने और संभालकर रखने आदिक क्रिया कर्म करनेकी दिक्कतोंसे दूर रह सकता है। शरीरको अलंकृत करने अथवा उसमें ममकारका भाव नम्रतासे ही कुश क्रिया जा सकता है। तीर्थकरोंके आचरणका अनुसरण भी नग्नतासे ही हो सकता है । और आत्मामें ही छिपे हुए बल पराक्रमका प्रादुर्भाव अथवा सिद्ध वृद्धि भी इसीसे हो सकती है। इत्यादि अपरिमित गुण नम्रताके द्वारा सिद्ध होते हैं। अतएव स्थितिकल्पगुणोंमें यह आचेलक्य नामका एक विशिष्ट गुण बताया है। इसका विस्तृत समर्थन जिनको जानना हो उन्हे श्री विजय आचार्यकी रचित संस्कृत
बबाय