________________
बनगार
गये प्रायश्चित्तको भुत कहते हैं। सपाधि परण के लिये उद्यन हए ऐसे आचार्य कि जिनकी जंघानोंका बल नष्ट होगया है-को चलने फिरनेकी सामर्ष नहीं रखते, और जो ऐपी जगह स्थाकि जहर और कोई आचार्य उपस्थित नहीं हैं, वे आचार्य किसी दूपरे योग्य आचार्य के समीप अपने समान योग्य पेष्ठ शिष्यके द्वारा अपना संवाद मेजते हैं और उस शिष्य ही मुखमे उन आचार्य परमेष्ठौके समक्ष अपने दोषों का आलोचन करते हैं, तथा उन आचार्य के दिये हुए प्रायश्चित्त को ग्रहण करते हैं। इस तरह के प्रायश्चित्त को आज्ञा करते हैं। यदि कोई ऐसे ही आचार्य जो समाविमरणको उद्या और जंघाचलपे गीत होने के कारण चरो अपमर्थ किंतु उनके पास कोई शिष्य आदि नहीं है - असहाय है, ऐसी अवस्था वे अपने दोषों का मयं आलोच। कर के पहले के अवधारित प्रायश्चित्तको धारण करते हैं, उसको धारणा कहते हैं। बहत्तर पुरुषों की ओक्षा जो प्राया रत्त बताया जाता है उ. सको जीत कहते हैं। इन पांनो ही प्रकार के प्रायश्चित्तों जो निष्णात है उन आवाको व्यवहार टु कहते हैं।
समाधिमग्ण करनेमें प्रवृत्त हुए साधक साधु पोंकी परिचर्या-सेवा शुश्रृग-वैयावृत्त्य करने को परिचर्या कहते हैं । अर्थात् जो समाधिमरण कराने या उसकीय वृत्य करने का उनको परिचरी अथवा प्रभारी कहते हैं। आलोचना करने के लिय उद्या हुए थपक-समाधिपाण करनेवाले आधुके गुण और दोषोंके प्रकाशित करनेको आयापायदेशना कहते हैं। अर्थात् जो क्षपक किसी प्रकारका अतीचा आदि न लगाकर सरलमावोंसे अपने दोषोंका आलोचन करता है उसके गुगकी जो प्रमा करते अथवा उस गुण को प्रकट करते हैं और जो थपक आलोचन करनेमें दोष लगाता अथवा वक्र मावोंसे आलोचन करता है उपके दोषों को जो प्रकट करते हैं उनको आयापायदेष्टा अथवा गुणदोषप्रवक्ता कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
गुणदोषाणां प्रथक क्षपकस्य विशेषमालुलोचयिषोः ।
अनृजोरालोचयतो दोषविशेष प्रकाशयति ।। व्रतादिकोंमें लगे हुए ऐसे अतीचारोंका कि जो बाहर प्रकट नहीं हुए है-अभीतक अन्तरङ्गमें ही छिपे हुए है वमन करानेको-बाहर निकालनेको उत्पीलन कहते हैं । इस गुणके धारण करनेवाले गणधर-आचार्य उत्पीलक कहे जाते हैं। इस कार्यकेलिये आचार्यको बलवान् और सिंहके समान पराक्रमी तथा प्रतापी और ववन