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बनगार
रत्न आदिकी चोरी तथा परस्त्रियोंको देखकर रागभावका उद्रेक एवं वहांकी लोकोत्तर विभूतिको देखकर उसकेलिये निदान भावका हो जाना भी संभव है । इत्याद अनेक कारण है कि जिनके निमित्तसे राजपिण्डको वयं बताया है। अत एव जहाँपर ये दोष संभव न हों, अथवा दुपरी जगह आहारका लाभ असंभव हो, तो श्रुतमें विच्छेद न पडे इसकेलिये राजकीयपिण्डका मी ग्रहण किया जा सकता है। अर्थात् ऐसी अवस्थामें संयमी जन अपने तप संयम और भ्यान स्वाध्याय आदिके साधनको कायम रखनेकेलिये राजापेण्डको मी ग्रहण कर सकते हैं। क्योंकि उसको वयं जो माना है सो उपयुक्त दोषोंकी संभावनासे ही माना है।
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पांचवां स्थितिकल्प गुण कृतिकर्म है। पूर्वोक्त छह आवश्यकोंका पालन करना अथवा गुरुजनोंका विना यकर्म करना इसको कृतिकर्म कहते हैं । इसका स्वरूप पहले लिखा जा चुका है।
व्रतोंके आरोपण करनेकी योग्यताको छहा स्थितिकल्प गुण समझना चाहिये । इसकेलिये जो आचेलक्यमें स्थित है, तथा औद्देशिक आदि पिण्डका त्याग करनेमें उद्यत रहता है, गुरुजनोंकी भक्ति करनेवाला तथा विनयशील है उसको व्रतारोपणके योग्य समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
आचेलके य ठिदो उद्देसादीय परिहरवि दोसे ।
गुरुभत्तिमं विणीदो होदि वदाणं स अरिहो दु । जो उत्पत्तिकी अपेक्षा माता और पिता अर्थात् जाति और कुलके सम्बन्धमें महान हैं, जो वैभव प्रताप और कीर्तिकी अपेक्षा गृहस्थोंमें भी महान रहे हैं, जो ज्ञान और चर्या आदिमें उपाध्याय तथा आर्थिका आदिसे भी नहान हैं, एवं क्रियाकर्मके अनुष्ठान द्वारा भी जिनमें श्रेष्ठता पाई जाती है उन आचार्यों को स्थितिकल्प सातवें ज्येष्ठतागुणसे युक्त समझना चाहिये। आठवां स्थितिकल्पगुण प्रतिक्रमण है। इसका स्वरूप पहले बताचुके हैं।जो इस के करने और करानेवाले हैं उनको इस आठवें गुणसे युक्त समझना चाहिये । नौवां स्थितिकल्प गुण मासैकवासि ता है। अर्थात् जिनके तीस दिनरात्रितक एक ही स्थानमें या ग्राम आदिमें रहनेका व्रत हो उनको इस गुणसे युक्त
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