Book Title: Anagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pt Khoobchand Pt
Publisher: Natharang Gandhi

View full book text
Previous | Next

Page 925
________________ अनगार समझना चाहिये । साधुओंको एक ही स्थानमें अधिक दिनतक रहनेसे अनेक दोष लग सकते हैं। यथा-उद्गम आदि दोषोंका परिहार नहीं किया जा सकता, उसी स्थानसे प्रतिबन्ध होजाता है-वहाँके निवासियोंसे या उस स्थानले ही राग होजाता है। गौरवमें कमी आती अथवा लघुता प्राप्त होती है, आलस्य-प्रमादकी उत्पत्ति और बृद्धि होती है, शरीर अथवा मनमें सुकुमारताका भाव जागृत होता है, भावनाका अभाव और ज्ञातमिक्षाका ग्रहण होता है, इत्यादि अनेक दोष एक स्थानपर निवास करनेसे जो प्राप्त हुआ करते हैं उनका खुलासा मृलाराधनाकी टीका किया गया है, वहांसे जानना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि: पडिबंधो लहुयत् ण जणुवयारो ण देसविण्णाणं । णाणादीग अबुद्धी दोसा अविहारपरिकम्हि॥ किंतु मूलाराधनाकी टिपणीमें मासैकवासिताका अर्थ वर्षा योगको ग्रहण करनेके पूर्व तथा उसके समाप्त होनेपर उसी स्थानमें जहां चातुर्मास किया हो एक महीनेतक रहना किया है। दशवां स्थितिकल्प गुण योग-वर्षायोग है। वर्षों कालमें चार महीने तक एक ही जगह रहना इसको योग कहते हैं। उन दिनोंमें पृथ्वी स्थावर और जंगम जीवोंसे व्याप्त हो जाती है। अत एव उन दिनों में भ्रमण करनेसे संयममें अत्यधिक बाधा उपस्थित हो सकती है। जलवृष्टि तथा शीतलवायुके लगनेसे अपनी मी विराधना हो सकती है। वावडी आदिम पतन हो जाना भी संभव है। एवं जल और कीचड आदिके द्वारा अथवा उनमें छिपे हुए . लकडी इंठ काटे आदिके द्वारा भी वाधा होना संभव है। इत्यादि कारणोंसे चातुर्मासमें एकसौ बीस दिन तक एक जगह ही रहना, यह उत्सर्ग मार्ग बताया है। अपबाद मार्गकी अपेक्षासे कोई विशेष कारण उपस्थित होने पर अधिक अथवा कम दिन तक भी निवास किया जासकता है। अधिक प्रमाणमें आषाढ शुक्ला दशमीसे लेकर कार्तिक शुक्ला पूर्णमासीके ऊपर तीस दिनतक और भी निवास कर सकते हैं ऐसा समझना चाहिये। अत्यधिक जलवृष्टि, शास्त्र-उपदेशरूप श्रुतका विशिष्ट लाभ, शक्तिका अभाव, और किसीकी यावृत्य करने आदिका प्रसंग आ उपस्थित होना, इन प्रयोजनों के उद्देशसे एक स्थानमें अधिक दिनतक निवास किया जा सकता है। यह उत्कृष्ट कालका प्रमाण बताया है। हीन कालका प्रमाण चार दिनका है। अर्थात् महामारी, दुर्भिक्ष, ग्राम नगर प्रान्त आदिमें ११५ अध्याय

Loading...

Page Navigation
1 ... 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950