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बनार
कुशल एवं प्रसिद्ध कीर्तिके धारण करनेवाला होना चाहिये। ऐसा होनेपर ही वे छिपे हुए दोषोंको बाहर निकालकर दूर कर सकते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
ओजस्वी तेजस्वी वाग्मी च प्रथितकीर्तिराचार्यः।
हरिरिव विक्रमसारो भवति समुत्पीलको नाम ॥ यदि किसी शिष्यने अपना दोष एकान्तमें आकर कहा और वह ऐसा दोष है कि जिसको प्रकट करना उचित नहीं है तो उस गोप्य दोषको प्रकाशित न करना अपरिस्र व नामका गुण कहा है. इस गुणके कारण जो आचार्य उस आलंचित गोप्य दोषको पानीके चूंट की तरह पीकर रह जाते हैं-प्रकाशित नहीं करते उनको अपरिस्रावी कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि
___ आलोचिताः कलवा यस्या यः पीततोयसंस्थायाः।
न परिस्रवन्ति कथमपि स भवत्यपरिस्रवः सूरिः॥ क्षुदादिके दुःखोंका उत्तम कथा आदिके द्वारा उपशमन करनेको सुखावह गुण कहते हैं । इस आठवें गुणके धारण करनेवाले आचार्यको भी सुखावह कहते हैं। इस गुगके कारण आचार्य क्षुधा आदिसे पीडित
क्षपकके समक्ष ऐसी कथा करते हैं कि जो गम्मीर स्नायुक मिष्ट अत्यंत मनोहर और कानोंको अतिशय सुख | देनेवाली हो और जिसके सुनते ही पूर्वकी उत्तम स्मृतिका उदध हो जाय । जैसा कि कहा भी है कि:
गम्भीरस्निग्धमधुगमतिहृद्यां श्रवःसुखाम् । ।
निर्वापकः कयां कुर्यात स्मृत्यानयनकारणम् । इस प्रकार अचार्यके आचारवत्व आदि आठ गुगोंका स्वरूप बताकर स्थितिकल्परूप दश गुणोंका स्वरूप दो श्लोकों द्वारा बताते हैं:
आचेलक्यौदोशकशय्याधरराजकीयापिण्डोझाः। ।