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बनगार
अध्याव
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जो अङ्गसहित प्रवचनका मौनपूर्वक अध्ययन करता है उसको गणी कहते हैं। आचार्य भी अङ्गसहित प्रवचन के अध्येता हुआ करते हैं, अतएव उनको मी गणी कहते हैं । यहांपुर " गणेः " इसकी जगह " गुरोः " ऐसा भी पाठ माना है । अर्थात् आचार्य-गणी - गुरुके छत्तीस विशेष गुण हैं। यथा-आचारवच्च आधारवश्व आदि आठ गुण, और छह अन्तरङ्ग तथा छह बहिरङ्ग मिलाकर बारह प्रकारका तप, तथा संयम के अन्दर निष्ठाके सौष्ठव उत्तमताकी विशिष्टताको प्रकट करनेवाले आविलक्य आदि दश प्रकारके गुण- जिनको कि स्थिविकल्प कहते हैं, और सामायिकादि पूर्वोक्त छह प्रकारके आवश्यक ।
भावार्थ - आचारवावादि आठ, बारह तप, स्थितिकल्प दश और छद्द आवश्यकः इस प्रकार कुल मिलकर आचार्य छतीस गुण माने हैं।
आचारवश्व आदि आठ गुणों को गिनाते हुए उनका स्वरूप बताते हैं:
आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः । आयापार्यादिगुत्पीडोsपरिस्रावी सुखावहः ॥ ७७ ॥
आचारवच्व, आधारवश्व, व्यवहारपटुता, आयापायदेशना, उत्पीलन, अपरिस्रवण, और सुखावहन, ये आठ गुण आचार्य में होने चाहिये । इनका स्वरूप इस प्रकार है-
आचार पांच प्रकारका है- ज्ञानाचार दर्शनाचार चारित्राचार तपआचार और वीर्याचार। इन पांचो ही प्रकार के आचरणका स्वयं पालन करना दूसरोंसे कराना और उसका उपदेश देना इसको आचारवत्त्व कहते हैं । ये गुण जिनमें पाया जाय उनको आचारी कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
आचारं पचविधं चरति च चारयति यो निरतिचारम् । उपदिशति सदाचारं भवति स आचारवान् सूरिः ॥
घर्म ●
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