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बनवार
करके स्वध्यायको ग्रहण करने के लिये श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति करके उसका ग्रहण और श्रुतमक्ति बोलकर उसका निष्ठापन तथा समाप्तिमें शांतिभक्ति करनी चाहिये।
जो म्बाध्यायको ग्रहण नहीं कर सकते उन गृहस्थ श्रावकोंको उस दिन-ज्येष्ठ शुक्ला ५ को केवल सिद्धभक्ति श्रुतमक्ति और शांतिभक्ति करनी चाहिये ।
सिद्धान्त आदिकी वाचना सम्बन्धी क्रियाकी विशेष विधि बतानेकेलिये दो श्लोक कहते हैं, जिसमें साधुओंको सिद्धान्तके अर्थाधिकारोंपर कायोत्सर्ग करनेका उपदेश देते हैं:
कल्प्यः क्रमोय सिद्धान्ताचारवाचनयोरपि । एकैकार्थाधिकारान्ते व्युत्सर्गास्तन्मुखान्तयोः ॥ ५९॥ सिद्धश्रुतगणिस्तोत्रं व्युत्सर्गाश्चातिभक्तये ।
द्वितीयादिदिने षट् षट् प्रदेया वाचनावनौ ॥ ६ ॥ युग्मम् । ऊपर भूतपंचमीके दिनकी जो विधि बताई है वह केवल उसी दिन नहीं किंतु सिद्धान्तवाचना और आचारवाचनामें भी यही विधि करनी चाहिये । अर्थात् सिद्धान्तवाचना और वृद्धव्यवहारके अनुसार आचारवाचनाका सिद्धभक्ति और श्रुतमक्ति पूर्वक प्रतिष्ठापन करके श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति के द्वारा बृहत् स्वाध्यायको स्वीकार कर उसका उपदेश देना चाहिये । और श्रुतमक्तिके द्वारा उस स्वाध्यायको समाप्त कर अंतमें शंतिमक्ति बोलकर इस क्रियाको समाप्त करना चाहिये । तथा साधुओंको सिद्धान्तके प्रत्येक अर्थाधिकारके अंतमें कायोत्सर्ग धारण करना चाहिये । जैसा कि चारित्रासारमें भी कहा है कि:-" सिद्धान्तस्यार्थाधि कारणां समाप्तौ एकक कायोत्सर्ग कुर्यात् , इति । अर्थात् सिद्धान्तके प्रत्येक अर्थाधिकारके अंतमें एक एक कायोत्सर्ग करना चाहिये । तथा इस प्रत्येक अर्थाधिकारके अंतमें और आदिमें सिद्धभक्ति श्रुतमक्ति और आचार्यभक्ति करनी चाहिये । वाचनाके दिन तो इसी प्रकारकी क्रिया करनी चाहिये । किंतु उसके बाद-दूसरे तीसरे आदि दिनको सिद्धान्तके