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क्रिया करनी चाहिये । यह क्रिया साधुपरिचारकों के लिये है। किंतु जो स्वाध्यायको ग्रहण न करने वाले गृहस्थ है उन्हें आदि और अंतक दिन श्रुतपंचमीके समान ही क्रिया करनी चाहिये । अर्थात् गृहस्थ परिचारकोंको संन्यास के पहले दिन और पिछले दिन सिद्धमक्ति श्रुतमक्ति और शांतिभक्तिही करनी चाहिये । क्योंकि वे स्वाध्यायको ग्रहण नहीं कर सकते। क्रमानुसार आष्टाहिक पर्व कालकी नैमित्तिक क्रियाको बताते हैं:
कुर्वन्तु सिद्धनन्दीश्वरगुरुशान्तिस्तवैः क्रियामष्टौ।
शुष्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्ने ॥३॥ आषाढ कार्तिक और फाल्गुन महीनेकी शक्ल पक्षकी अष्टमीसे लेकर आठ दिनतक-अर्थात पूर्णमासी पर्यत प्रतिदिन मध्याहके समय-पौर्वाहिक स्वाध्यायको समाप्त करके सिद्धमक्ति नन्दीश्वर चैत्यमक्ति पंचगुरुमक्ति और शांति भक्ति के द्वारा आष्टाहिक क्रिया करनी चाहिये. इस श्लोकमें "कुर्वन्तु" ऐसी बहुवचन क्रियाका जो प्रयोग किया है उसका अभिप्राय यह है कि यह क्रिया सम्पूर्ण संघको-आचार्य आदि मबको मिलकर करनी चाहिये। अभिषेकके समय की जानेवाली वन्दना क्रिया और मंगल गोचर क्रियाको बताते हैं:
सा नन्दीश्वरपदकृतचैत्या त्वभिषेकवन्दनास्ति तथा ।
___ मङ्गलगोचरमध्याह्नवन्दना योगयोज्झनयोः ॥ ६४ ॥ . ऊपर जो नन्दीश्वरजिनचैत्यवन्दनाकी क्रिया बताई गई है वही क्रिया जिस दिन जिनमगवानका महा अभिषेक हो उस दिन करनी चाहिये। अत एव इस नंदीश्वर क्रियाको ही अभिषेक वन्दना कहते हैं। अन्तर इतना ही है कि यहाँपर नन्दीश्वर चैत्यभाक्ति न करके केवल चैत्यभक्ति ही की जाती है । इसी प्रकार वर्षायोगके ग्रहण करनेपर और उसके छोडनेपर यह अभिषेक वन्दनाही मंगलगोचरमध्यान्हवन्दना कही जाती है। अत एव
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