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मिगार
प्रतिक्रम्याथ गोचारदोष नाडीद्वयाधिके ।
मध्यान्हे प्रालवद्वृत्ते स्वाध्यायं विधिवद्भजेत् ॥ ३९ ॥ प्रत्याख्यान अथवा स्वाध्यायको अपने में स्थापित करने के बाद साधुओंको गोचारसम्बन्धी दोषोंअतीचारोंका प्रतिक्रमण करना चाहिये । और उसके बाद पूर्वाह्नकी तरह अपराह्न कालमें भी मध्यान्हसे दो घडी अधिक समय व्यतीत होनेपर विधिपूर्वक स्वाध्यायका प्रारम्म करना चाहिये ।
अपराह्न कालका स्वाध्याय समाप्त होनेपर देवसिक प्रतिक्रमण-दिन भरमें जो कोई दोष अथवा अाचार लग गया हो उसका संशोधन आदि करनेकी विधि बताते हैं:
नाडीद्वयावशेषेति तं निष्ठाप्य प्रतिक्रमम् ।
कृत्वाह्निकं गृहीत्वा च योगं वन्द्यो यतैर्गणी ॥१॥ जब दिनमें दो घडी काल बाकी रहे तब विधिपूर्वक आपराहिक स्वाध्यायकी निष्ठापना कर देनी चाहिये। और फिर आतिक क्रिया करने में जो किसी प्रकारका दोष लगा हो उसका प्रतिक्रमण करना चाहिये । पुनः संयमियोंको रात्रि योग ग्रहण कर आचार्य परमेष्ठीकी वंदना करनी चाहिये । आचार्य वन्दनाके अनंतर देववन्दना आदि जो करना चाहिये उसका विधान करते हैं:
स्तुत्वा देवमथारभ्य प्रदोषे सद्विनाडिके । मुञ्चेन्निशीथे स्वाध्यायं प्रागेव घटिकाद्वयात् ॥१॥
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१--मुनियोंके माहारके गोचार भ्रामरी अक्षमृक्षण और श्वभ्रपूरण ये भेद और इनका स्वरूप पहले बता चुके हैं।