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बनगार
न वा निष्ठाप्य विधिवद्भुक्त्वा भूयः प्रतिष्ठयत् ॥ ३६॥ यदि भोजन करनेकी इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधिपूर्वक क्षमापणा करनी चाहिये । और उस निष्ठापनके अनंतर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार भोजन करके अपनी शक्तिके अनुसार फिर भी प्रत्याख्यान अथवा उपवासकी प्रतिष्ठापना करनी चाहिये ।
प्रत्याख्यान या उपवासकी निष्ठापना-समाप्ति और आगेकेलिये प्रतिष्ठापन-प्रारम्भ करने की और प्रतिष्ठापन करनेके अनंतर आचार्य परमेष्ठीकी वंदना करनी चाहिये, अत एव उसके भी करनेकी विधि बताते हैं:
हेयं लघ्व्या सिद्धभक्त्याशनादौ, प्रत्याख्यानाद्याशु चादेयमन्ते ।
सूरौ तादृग्योगिभक्त्यग्रया तद्, प्राह्यं वन्द्यः सूरिभक्त्या स लघ्व्या ॥३७॥ पहले दिन जो प्रत्याख्यान या उपचास ग्रहण किया था उसकी निष्ठापना साधुओंको भोजनके पहले लघु सिद्धमक्ति बोलकर करनी चाहिये । तथा भोजन क्रिया समाप्त होते ही तत्काल पुनः सिद्धभक्ति बोलकर नवीन प्रत्याख्यान या उपवासका प्रतिष्ठापन करना चाहिये। किंतु इस प्रकारसे स्वयं प्रत्याख्यानादिका प्रतिष्ठापन आचार्य परमेष्ठीके निकट न रहनेपर ही करना चाहिये । यदि आचार्य पासमें हों तो साधुओंको भोजनके अनंतर लघुआचार्य भाक्त बोलकर उनकी वंदना करनी चाहिये । पुनः लघु सिद्ध भक्ति और योगिभक्ति बोलकर प्रत्याख्यानादिका प्रतिष्ठापन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
सिद्धभक्त्योपवासश्च प्रत्याख्यानं च मुच्यते । लव्यैव भोजनस्यादी भोजनान्ते च गृह्यते ॥ सिद्धयोगिलघुभक्त्या प्रत्याख्यानादि गृह्यते ।
लव्या तु सूरिभक्त्यैव सूरिर्वन्योथ साधुना ॥ अर्थात् भोजनकी आदिमें उपवास या प्रत्याख्यानका त्याग और भोजनके अन्तमें उसका ग्रहण लघु
अध्याय