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अनमार
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भावार्थ-अपनेसे बडे साधुओंकी विनय करनेसे पूज्यता प्राप्त हुआ करती है।
प्रातःकालकी चैत्यवंदना आदि क्रिया कितने समयतक करनी और उसके अनन्तर क्या करना सो बताते हैं:
प्रवृत्त्यैवं दिनादौ द्वे नाड्यौ यावद्यथाबलम् ।
नाडीद्वयोनमध्याहू यावत्स्वाध्यायमावहेत ॥ ३४॥ पूर्वोक्त रीतिसे चैत्यवंदना आदि क्रिया प्रातः काल-दिनकी आदिमें दोघडी तक करनी चाहिये । उसके बाद माधुओंको स्वाध्याय करना चाहिये । स्वाध्याका समय मध्याह्नसे दो घडी पहले तकका है । सो इस समय के मतिर ही साधुओंको अपनी शक्ति के अनुसार स्वाध्याय करना चाहिये ।
स्वाध्यायको समाप्त करनेपर मुनिकी दो अवस्थाएं हो सकती हैं। एक उपवास सहित और दूसरी उपबासरहित । इनमेंसे पहली अवस्थामें मध्याहसे दो घडी पहले और दो घडी पीछे का जो अस्वाध्यायका काल है उस समयमें मुनिको क्या करना चाहिये सो बताते हैं:
ततो देवगुरू स्तुत्वा ध्यानं वाराधनादि वा।
शास्त्रं जपं वाऽस्वाध्यायकालेभ्यसेदुपोषितः ॥ १५॥ उपवास युक्त साधुको पूर्वाह्नकालका स्वाध्यय समाप्त होने पर अस्वाध्याय कालमें श्री अरहंत परमेष्ठी और गुरु-धर्माचार्यकी वन्दना करके ध्यान करना चाहिये । अथवा चार आराधना आदिका या किसी शास्त्रका अभ्यास करना चाहिये । यद्वा पंचनमस्कारादि मंत्रका जप करना चाहिये । उपवास न करनेवाले साधुको इस मध्याह्नके अस्वाध्यायकालमें क्या करना चाहिये सो बताते हैं:
प्राणयात्राचिकर्षाियां प्रत्याख्यानमुपोषितम् ।