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आचार्य वन्दनाके बाद साधुओंको विधिपूर्वक देववन्दना करके प्रदोष-सन्ध्या समयके अनन्तर दो घडी काल व्यतीत होनेपर पूर्वरात्रिक स्वाध्यायका प्रारम्भ करना चाहिये. और अर्धरात्रिमें दो घडी समय जब बाकी रहे तब उस स्वाध्यायको समाप्त करना चाहिये।
. इस पूर्वरात्रिक स्वाध्यायके समाप्त होनेपर साधुओंको उचित है कि वे ऐसा अभ्यास और प्रयत्न करें कि जिससे वे निद्राके वशीभूत न हों। अत एव निद्राको जीतनेके उपाय कौनसे हैं सो बताते हैं:
ज्ञानाचाराधनानन्दसान्द्रः संसारभीरुकः।
शोचमानोऽर्जितं चैनो जयेन्निद्रां जिताशनः॥४२॥ निद्राको जीतनेके चार उपाय हैं। १-आहारको जीतना । उपवास या अनुपवास करके-३२ ग्रास मात्र अथवा उदरके तीन भागमात्र जो भोजनका प्रमाण बताया है उससे कम भोजन करके, अथवा ऐसा कोई भी आहार ग्रहण न करके कि जिससे शरीरमें आलस्य या तन्द्रा आजाय, निद्राको जीतना चाहिये। जिताशन: इस शब्दकी जगह जितासन: ऐसा दन्त्य सकारका भी पाठ माना है । अत एव इस शब्दका अर्थ आसनको जीतना ऐसा होता है। अर्थात् पर्वकासन या वीरासन आदिसे चलायमान न होकरआसनके निमित्तसे खेदित न होकर निद्राको जीतना चाहिये । दूसरा उपाय-आराधनाओंकी अविच्छिन्न प्रवृत्ति है । अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र और तप इन चार विषयोंकी चारों आराधनाओंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले प्रमोदको निरन्तर प्रवृत्तिके द्वारा अतिसघन बनाकर निद्राको जीतना चाहिये । तीसरा उपाय संवेग है । अर्थात् पंचपरिवर्तनरूप या दुःखोंके कारण अथवा सर्वथा दुःखमय संसारसे निरन्तर डरनेवाला निद्राको जीत सकता है । चौथा उपाय शोक है। जो पूर्वकालमें अपनेसे कोई पाप बन गया है उसका शोक करनेसे भी निद्रा जीती जा सकती है। जैसा कि कहा भी है कि
शानाद्याराधने प्रीति भयं संसारदु:खतः । पापे पूर्वार्जिते शोकं निद्रां जेतुं सदा कुरु॥
बच्चाय