________________
बनगार
इसके अनंतर अपने शिष्यों और सधर्माओंसे युक्त गुरु-आचार्यको अपने इष्ट देवको नमस्कार कर "समता सर्वभूतेषु" इत्यादि पाठ बोलकर बृहद्भक्तियों में से " सिद्धानुद्भतक," त्यादिक सिद्धभक्ति और 'येनेन्द्रान्" इत्यादि अञ्चलिका सहित चारित्रमक्ति बोलनी चाहिये । तथा श्री अरहंत भगवान्के सम्मुख “ इच्छामि मत्ते पक्खि यमि आलोचउं" इत्यादि " जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं" यहांतककी बृहदालोचना करनी चाहिये। यहांपर भी दोनों भक्तियोंकी आदिमें दो प्रकारके उच्चारण हुआ करते हैं।" सर्वाती चाविशुद्धयर्थ भावपूजावंद नास्तवसमेतं सिद्धमक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा सिद्धभाक्तिकी आदिमें उच्चारण करना चाहिये । और " सर्वाती चार विशुद्धयर्थ आलोचना चारित्रमाक्ति कायोत्सनं करोम्यहम्" ऐसा चारित्रभक्ति की आदिमें उच्चारण करना चाहिये।
अर्थात-पंचपरमेष्ठियोंके णमो अरहताणं प्रभृति पांच नमस्कार पदोंको बोलकर कायोत्सर्ग करके "यो. स्सामि" प्रभृति पाठ बोलना चाहिये । पुनः" तव सिद्ध" इत्यादि पाठको अञ्चलिकाके साथ बोलकर पूर्वोक्त विधि करनी चाहिये । और उसके बाद अंचलिकायुक्त "प्राट्काले सविद्युत्" इत्यादि योगिभक्तिका पाठ बोलकर तथा " इच्छामिभत्ते चरित्ताचारो तेरसविहो" इत्यादि पांचो दण्डकोंका उच्चारण करके और " वदसमिदिदिय" से लेकर "छेदोवडावणं होदु मज्झं" यहांतकके पाठ को तीन वार बोलकर अरहंत देवके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करनी चाहिये। इसके बाद अपनेसे जैसा कुछ दोष बनगया हो उसके अनुसार स्वयं प्रायश्चित्त लेकर
और "पंचमहाव्रतम् " आदि पाठको तीन वार बोलकर प्रायश्चित्तके योग्य शिष्योंको भी प्रायश्चित्त देकर देवके समक्ष गुरुभक्ति करनी चाहिये । यहाँपर तीन प्रकारके उच्चारण किये जाते हैं। पहला " नमोस्तु सर्वातीचारवि. शुद्धयर्थ सिद्धभाक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् " दुसरा " नमोस्तु सर्वाती चार विशुद्धयर्थ आलोचनायोगिभक्ति कायोत्सर्ग करोग्यहम् " और तीसरा “नमोस्तु निष्ठापनाचार्य भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।" ये उच्चारण क्रमसे यथास्थान करने चाहिये । यह सब क्रिया केवल आचार्यको ही करनी चाहिये ।
इसके अनंतर ग्रहण करलिया है प्रायश्चित्त जिन्होने ऐसे आचार्य परमेष्ठीके आगे शिष्यों तथा सधर्माः आको लघुद्धिमक्ति लघुयोगिभक्ति और चारित्रभक्ति तथा आलोचना करके जिससे जिस प्रकारका दोष वनगया
बध्याय
८८८