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बनगार
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सिद्धवृचस्तुती कुर्याद्गुर्वी चालोचनां गणी ॥ ५२ ॥ देवस्या परे सूरेः सिद्धयोगिस्तुती लघू । सवृत्तालोचने कृत्वा प्रायश्चित्तमुपेत्य च ॥ ५३ ॥ वन्दित्वाचार्य माचार्य भक्त्या लछ्या ससूरयः प्रतिक्रान्तिस्तुतिं कुर्युः प्रतिक्रामेत्ततो गणी ॥ ५४ ॥ अथ वीरस्तुतिं शान्तिचतुर्विंशतिकर्तिनाम् । सवृत्तालोचनां गुव सगुर्वालोचनां यताः ॥ ५५ ॥ मध्यां सूरिनुर्ति तां च लधीं कुर्युः परे पुनः ।
प्रतिक्रमा बृहन्मध्यसूरिभक्तिद्वयोज्झिताः ॥ ५६ ॥ पञ्चकम् |
पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के समय अर्थात् अमावस्या और पूर्णमासीको किये जानेवाले तथा चातुर्मास और संवत्सर के अंत में जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह जब करना हो तब शिष्य और सघर्माओं को पहले गुरुआचार्यकी पूर्व में बताई हुई विधिके अनुसार बन्दना करनी चाहिये । अर्थात् आचार्यकी वन्दना लघुसिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्तिको बोलकर गवासनके द्वारा करनी चाहिये । और आचार्य यदि सिद्धान्तवेत्ता हों तो क्रमसे सिद्ध श्रुत आचार्यमक्ति के द्वारा उनकी वन्दना करनी चाहिये । इत्यादि व्यवहारके अनुरोधसे जो विधान पहले बता चुके हैं उसी मृजय पाक्षिक आदि चातुर्मासिक तथा वार्षिक प्रतिक्रमणके समय भी गुरुकी पहले बन्दना करनी चाहिये। यहां पर तीनों क्तियोंके बोलते समय क्रमसे ततद्भक्तिके आदिमें तीन प्रकारके उच्चारण हुआ करते हैं । अर्थात् " नमोस्तु प्रतिष्ठापनसिद्ध भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा सिद्धभक्ति के प्रारम्भमें और " नमोस्तु प्रतिष्ठापन भक्ति योगं वरम्यहम् " ऐसा श्रुतभक्ति करते समय तथा " नमोस्तु प्रतिष्ठापना - चार्य भक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा आचार्यभक्तिकी आदिमें बोलना चाहिये ।
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धर्म •
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