________________
बनमार
૧
बजाय
सिद्धप्रतिमा, तीर्थकर भगवान्का जन्मकल्याणक और अपूर्व जिनप्रतिमा के विषयमें करने योग्य क्रियाका उपदेश देते हैं:
सिद्धभक्त्यैकया सिद्धप्रतिमायां क्रिया मता ।
तीर्थ कृज्जन्मनि जिनप्रतिमायां च पाक्षिकी ॥ ४८ ॥
सिद्ध प्रतिमाकी वन्दना करने में एक सिद्धभक्ति ही करनी चाहिये । और तीर्थकर भगवान् के जन्मकल्याण के समय पाक्षिकी क्रिया- सिद्धभार्क चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति करनी चाहिये । इसी प्रकार अपूर्व जिनप्रतिमाकी वन्दना करने में भी पाक्षिकी क्रिया ही करनी चाहिये ।
अष्टमी आदिकी क्रियाओंमें यदि अपूर्व चैत्यवन्दना और नित्यदेव वंदनाका योग करना अभीष्ट हो, अथवा इनका संयोग आकर उपस्थित हो जाये तो चैत्यमक्ति और पंचगुरुमक्तिका प्रयोग कब और किस स्थानपर करना सो बताते हैं:
दर्शन पूजात्रिसमयवन्दनयोगोऽष्टमीक्रियादिषु चेव ।
प्राक् तर्हि शान्तिभक्तेः प्रयोजयेचैत्यपंचगुरुभक्ती ॥ ४९ ॥
अष्टमी आदि क्रियाओंके समय में ही यदि अपूर्व चैत्य बन्दना और त्रैकालिक नित्य वंदनाका संयोग _आकर उपस्थित होजाय तो साधुओंको उचित है कि शान्तिभक्तिके पहले चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति करें। जैसा कि चारित्रसारमें भी कहा है कि:
""अष्टम्यादिक्रियासु दर्शन पूजात्रिकालदेववन्दनायोगे । शान्तिभक्तितः प्राक्चैत्यभक्ति पञ्चगुरुभकिं च कुर्यात् " इति ।
अर्थात् अष्टमी आदिको क्रिया में ही दर्शन पूजा - चैत्यवंदना और प्रातः मध्याह्न और सायंकालकी वंदनाका संयोग हो तो शांतिभक्तिके पहले चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति करनी चाहिये ।
८०५.