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बनमार
भावार्थ-जिस स्वाध्यायके करनेमें सेन वचन काय और इन्द्रियों को अन्य सब विषयोंसे रोककर अपने उपयोगको जिनवचनकी तरफ ही लगाया जाता है उस स्वाध्यायको उत्कृष्ट ध्यान समझना चाहिये । और उसके करने वाले ही साधुके समाधिका कार्य-कर्मक्षय हुआ करता है।
स्वाध्यायको करने के लिये पर्यकासनका जो निर्देश किया है वह उपलक्षण है । अत एव चीरासनादिकसे भी स्वाध्याय किया जा सकता है ऐसा समझना चाहिये । किंतु जो व्यक्ति इस विधिसे स्वाध्याय नहीं कर सकता और खडे होकर वंदना करने में असमर्थ हो तो वह केवल वंदना कर सकता है. अर्थात् शक्तिके रहते हुए स्वाध्याय और उसके अभावमें उक्त विशेषणोंसे युक्त साधुको वन्दना ही करनी चाहिये । प्रतिक्रमणके द्वारा योगके ग्रहण और स्यागमें जो काल लगना चाहिये उसका प्रमाण व्यवहारसे अथवा जैसा कि पहले कहा जा चुका है दनुसार समझ लेना चाहिये । । . किसी अन्य धर्मकार्यादिमें लगजानेसे यदि उक्त योगप्रतिक्रमणादिक निर्दिष्ट समयपर न हो सकें और जान करने में किसी प्रकारका व्यवधान आजाय तो वह अन्य समयमें भी किया जा सकता है। पैसा करनेमें कोई दोष नहीं है, ऐसा उपदेश करते हैं:
योगप्रतिकमविधिः प्रागुक्तो व्यावहारिकः। कालक्रमनियामोऽत्र न स्वाध्यायादिवद्यतः॥४॥
पाय
रात्रियोग तथा प्रतिक्रमणका जो पहले विधान किया गया है वह व्यावहारिक है। क्योंकि इनके विषयमें कालके क्रमका-समयानुपूर्विताका या काल और क्रमका नियम नहीं है। जिस प्रकार स्वाध्यायादि (स्वाध्याय देव वन्दम्य और भक्त प्रत्याख्यान) के विषयों काल और क्रम नियमित माने गये हैं उस प्रकार रात्रियोग और प्रतिक्रमणके विषयमें नहीं।
भावार्थ-जब स्वाध्यायादिकी तरह इनका कालक्रम नियत नहीं है तब यह बात स्वयं सिद्ध है कि