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अर्थात समाधिके निमित्तसे सभी आधि और व्याधि दूर रहती हैं । समाधि प्रवृत्त रहनेवाल साधके मानसिक खेद-क्लेश उत्पन्न नहीं हुआ करता । इसी तरह उनको शारीरिक दुःख भी या तो उत्पन्न ही नहीं होते, यदि देववशसे उत्पन्न भी हो जाय तो पीडाके कारण नहीं हुआ करते । तथा यह समाधि संसार सम्बन्धी और निःश्रेयस
की कमी मंद न पडनेवाले महान् आनन्दको प्रकट करनेवाली है। अत एव हे मित्र ! इस जीवके लिये संसारमें समाधिके समान कोई भी कल्याणका कारण नहीं हो सकता। प्रामातिक देव वन्दनाके अनंतर आचार्यादिकोंकी वन्दना करनेका उपदेश देते हैं:
लघ्व्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वन्द्यो गवासनात् ।
सैद्धान्तोन्तःश्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्नुतिं विना ॥ ३१ ॥ माधओंको आचार्यकी वन्दना गवासनसे बैठकर-जिस तरह गौ बैठते समय अपनी टांगोंका आकार नानी उस तरह बनाकर और लघु सिद्ध भाक्त तथा लघु आचार्य भक्ति बोलकर करनी चाहिये । यदि आचार्य मानवेता हों तो उनकी वंदना लघुसिद्धमक्ति लघुश्रुतमाक्त और लघुआचार्यभाक्तको क्रमसे बोलकर करनी चाहिये । आचार्यके सिवाय दूसरे यतियोंकी वन्दना भी गवासनसे ही किन्तु वह केवल लघुसिद्ध भक्तिको बोलकर ही करनी चाहिये । किंतु यदि इतर साधु भी सिद्धान्तवेत्ता हों तो उनकी वंदना लघुसिद्ध भाक्ति और उसकेबाद क्रमसे लघुश्रुत शक्ति भी वोलकर करनी चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
सिद्धभक्त्या बृहत्साधुर्वन्द्यते लघुसाधुना । लव्या सिद्धश्रुतस्तुत्या सैद्धान्तः प्रप्रणम्यते ॥ सिद्धाचार्यलघुस्तुत्या वन्द्यते साधुभिर्गणी।
सिद्धश्रुतगणिस्तुत्या लव्या सिद्धान्तविद्गणी ॥ छोटे साधुओंको बडे साधुओंकी वन्दना लघुसिद्धि माक्त पूर्वक, तथा सिद्धान्तवेचा साधुओंकी वंदना कमसे उपसिद्ध भक्ति और लघुश्रुतभक्ति के द्वारा, और आचार्यकी वंदना लघुसिद्धभाक्त तथा लघु आचार्यमक्तिके दाग.
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