Book Title: Anagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pt Khoobchand Pt
Publisher: Natharang Gandhi

View full book text
Previous | Next

Page 883
________________ और दो घोंदुओंको नम्रीभूत करने आदिकी जो विधि बताई है उसी प्रकार यहां भी " इच्छामि भत्ते चेहयभत्ति काउस्सग्गो कओ" इत्यादि पाठ बोलकर आलोचन करके खडे होना चाहिये । क्योंकि चैत्यभक्तिकी तरह यहांपर प्रदक्षिणा नहीं दी जाती। अतएव खडे होकर पहलेकी तरह ही कर्तव्य क्रियाकी विज्ञापना करके अहंदादिक पंचगुरु ओंको वन्दना मुद्राके द्वारा नमस्कार करना चाहिये । यहाँपर भी पंचाङ्ग नमस्कार पूर्वक “इच्छमि मंत्ते पंचगुरुभाक्ति काउस्सग्गो कओ तस्स आलोचेउ, अहमहापाहिडेर संजुत्ताणं अरहताणं" इत्यादि पाठ बोलकर आलोचन करना चाहिये । इसके बाद वन्दना सम्बन्धी अतीचागेको समाधिमक्ति के द्वारा निःशेष करके शक्तिके अनुसार अपना धान करना चाहिये । अर्थात् अपने बलवीर्यादिका विचार कर आत्मध्यानमें तत्पर होना चाहिये । आत्मध्यानको छोडकर अन्य किसी भी उपायसे मोक्षकी सिद्धि नहीं हो सकती, इस बातको प्रकट करते हैं नात्मध्यानाद्विना किंचिन्मुमुक्षोः कर्महीष्टकत ।। किंत्वस्त्रपरिकमेव स्यात् कुण्ठस्याततायिनि ॥ २९॥ . मुमुक्षुओंकी आत्मध्यानसे रहित कोई भी क्रिया इष्टप्रयोजन-मोक्षकी साधक नहीं हो सकती । जो मोक्षक आभिलाषा रखकर अन्य कायक्लेश तपश्चरणादि क्रिया तो करते हैं परन्तु निजात्मस्वरूपका धान नहीं करते उनका वह क्रिया करना ठीक वैसा ही समझना चाहिये जैसे कि कोई पुरुष शस्त्र चलानेका अभ्यास तो करता है परन्तु क्रिया में मंद है। यदि कोई शत्रु हथियार लेकर मारनेको उद्यत हो तो उसका वह निवारण नहीं कर सकता। उसी प्रकार केवल बाह्य क्रिया करनेवाला साधु कर्मशत्रुओं का निवारण नहीं कर सकता। भावार्थ-मोक्षकी सिद्धि आत्मध्यानसे ही हो सकती है। जैसा कि कहा भी है कि: मनाः कर्मनयावलम्बनपरा शानं न जानन्ति यद् मना ज्ञाननयैषिणोपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः। विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भजन्तः स्वयं,.. ये कुर्वन्ति न कर्म जातुन वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥ बचाय

Loading...

Page Navigation
1 ... 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950