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द्वारा करना चाहिये । किंतु प्रथमपक्ष में-वचनके द्वारा जप करनेमें सौ गुणा पुण्य होता है तो द्वितीय पक्षमें-मन केद्वारा जप करनेमें हजारगुणा पुण्य हुआ करता है। इस विषयमें मनुने भी कहा है कि:
विधियहाजपयज्ञो विशिष्टो दशमिर्गुणैः ।
उपांशु स्याञ्छतगुणैः साहस्रो मानसः स्मृतः ॥ अर्थात् विधियज्ञकी अपेक्षा जपयज्ञका फल दशगुणा अधिक है. उसमें भी वाचनिक जपका फल सौगुणा है तो मानसिक जपका फल हजार गुणा है। ममुक्षु मव्योंके श्रद्धानको उद्दीप्त करनेकेलिये पंचनमस्कार मंत्रका माहात्म्य बताते हैं:
अपराजितमन्त्रो वै सर्वविघ्नविनाशनः ।।
मङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः॥ २५ ॥ यह पंचनमस्कार मंत्र सम्पूर्ण विघ्न-पाप अथवा अन्तरायोंका अच्छी तरह नाश करनेवाला है । इतना ही नहीं बल्कि जितने भी मंगल-पापके गलानेवाले उपाय हैं, अथवा पुण्यको देनेवाले साधन हैं उन सभीमें यह मुख्य-प्रधान है। अत एव शिष्ट पुरुषोंने इसको यह अपराजित मंत्र है ऐसा निश्चितरूपसे माना है। जैसा कि कहा भी है कि:
एसो पंचणमोकारो सव्वावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढम होइ मलं ॥ इस प्रकार पंच परमेष्ठियोंकी वन्दना करनेसे जो माहात्म्य प्राप्त होता है उसको बताकर एक एक परमेष्ठीका भी विनय करनेसे जो लोकोत्तर महिमा प्राप्त हुआ करती है उसको दिखाते हैं ।
नेष्टं विहन्तुं शुभभावममरसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः ।