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साधुओंको अप्रमत्त होकर प्राणवायुके साथ २ धीरे २ अपने मनको अच्छी तरह भीतर प्रविष्ट करके हृदय कमलकी कर्णिका रोकना चाहिये । इस तरह प्राणायामके सिद्ध होनेसे चित्त स्थिर हो जाया करता है। जिससे कि अन्तरङ्गमें संकल्प विकल्पोंका उत्पन्न होना बन्द हो जाता है, विषयोंकी आशा निवृत्त होजाती है, और अन्तरङ्गमें विज्ञानकी मात्रा बढने लगती है। प्राणायाम करनेवालोंके मन ऐसे स्थिर होजाते हैं कि उनको जगत्का सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रत्यक्ष सरीखा दीखने लगता है। प्राणायामके द्वारा प्राणवायुका प्रचार करनेमें चतुर योगी कामदेव रुपी विष और मनपर विजय प्राप्त करलिया करता है । तथा इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि वह उसके द्वारा रोगोंका नाश कर सकता है, और शरीरको स्थिर बनालिया करता है। तथा और भी कहा है कि
दोयक्समुआ दिट्टी अंतमुही सिवसरूवसंलीणा । मणपवणक्वविहूणा सहावत्था स णायल्वा ॥ जत्व गया सा विट्टी तत्व मणं तत्थ संठियं पवणं ।
मणपवणलए सुण्णं तहिं च जं फुरइ तं ब्रह्म । अर्थात् प्राणायाम करजेवाले साधुओंकी दृष्टि जब बाह्य विषयों की तरफसे हटकर अन्तरङ्गकी तरफ उन्मुख होकर आत्मरूपमें अच्छी तरह लीन हो जाती है उस समय मन पवन और इन्द्रियोंकी गति बन्द होकर साहजिक अवस्था प्राप्त हुआ करती है । जहाँपर दृष्टि जाकर स्थिर हो जाती है, वहींपर मन और वापर पवन भी स्थिर हो जाता है । इस प्रकार मन और पवनके स्थिर होजानेपर जब बाह्य जगत्से शून्यता प्राप्त होती है उस समयमें ब्रह्म प्रकट हुआ करता है।
. प्राणवायु के संचार क्रमको ही प्राणायाम कहते हैं. इसके मूल में तीन भेद हैं। कुम्मक रेचक पूरक। वायुके भीतर खींचनेको कुम्भक और वहां रोक रखने को पूरक तथा बाहर निकालनेको रेचक कहते हैं । योगियोंको व्युत्मर्ग-कायोत्सर्गक समय ध्यान करते हुए ये तीनों ही क्रिया करनी चाहिये । इस ध्यानमें जिनमुद्राके द्वारा णमो अरहताणं प्रभृति पंचनमस्कार महामंत्ररूप गाथाका चिन्तवन करना चाहिये । तथा इस माथाके कमसे दो दो और
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